विकसित होते भारत का बिखरता सामाजिक ढांचा

विकसित होते भारत का बिखरता सामाजिक ढांचा

संदीप मिश्रा

हाल के दिनों में मध्य प्रदेश , राजस्थान  और छत्तीसगढ़,  सहित 5 राज्यों के चुनाव सम्पन्न हुए। इन चुनावों में सोशल मीडिया में एक चीज यह देखने में आई कि जहाँ चुनाव में विकास के मुद्दे पर लोगों में बहँस होनी चाहिये , वहीं लोगों में विकास से इतर, दलित हनुमान,,, नाराज जनरल,,, राम मंदिर,,, एस सी/एस टी,,, आर्थिक आरक्षण  आदि पर ही चर्चा चलती रही। यह देश के स्थायी विकास के लिये शुभ सूचक नहीं है। दलितों को सम्मान देने-दिलाने के बजाय उन्हें ब्राह्मणों से लड़ाकर अपनी जातीय वोट बैंक को समेटते नेताओ, को क्या दलित शुभचिंतक समझा जा सकता है? इस तरह के नेता आखिर ऐसा कौन सा विकास का ब्रह्मास्त्र उन्हें पकड़ाना चाह रहे हैं कि जिससे ब्राह्मण या सवर्ण विरोध करके उनकी जिंदगी खुशहाल हो जाएगी ? मुझे स्प्ष्ट लगता है कि यह उन लोगों का भावनात्मक शोषण करके अपने वोट बैंक को साधने की कोशिश ही है । यहाँ  दलित कहे जाने वाले लोगों को समझने की जरूरत है कि अपने ही समाज में तर्कहीन विवाद करके हम विकसित होंगे या बर्बाद ! मोदी सरकार के कार्य व नीति में सही-गलत  की चर्चा होने के बजाय हमारे समाज तथा इसके तथाकथित ठेकेदार नेताओं ने सोशल मीडिया को माध्यम बनाकर समाज में हिन्दू-मुस्लिम, मन्दिर-मस्जिद, सवर्ण-दलित, आरक्षण-अनारक्षण, देवी-देवताओं को ही चर्चा का विषय बना दिया । क्या ये विकास के मुद्दे थे ? आज देश में सबको समानता का अधिकार है। फिर क्या हिन्दू, क्या मुस्लिम, क्या दलित, और क्या सवर्ण? आखिर हम इस बेमतलब के झगड़े से कब बाहर निकलकर देश में शांतिपूर्ण माहौल बनाकर विकास की बात सोचेंगे ? 


धार्मिक मुद्दों तथा दलित, पिछड़ा, सवर्ण पर नेताओं को कोई बयानबाजी  करने से बचना चाहिये क्योंकि इससे समाज में हीन भावना तथा भेदभाव ही पैदा होता है । दुःखद है कि हमारे देश में कोई भी ऐसा दल नहीं जो सिर्फ भारतीयता पर चर्चा करे! सम्भव है इसका कारण येन केन प्रकार से  सत्ता हासिल की चाहत ही हो, किंतु यह देश के सुखद भविष्य के लिये अच्छा संकेत नहीं है। हमारा देश आजादी के इतने साल बाद भी धर्म जाति से ऊपर उठकर नहीं सोच पाया जिसका लाभ वे पड़ोसी देश जो भारत से शत्रुता रखते हैं , बखूबी उठा रहे हैं। हमारी राजनीति का स्तर इतना गिर गया है कि हम अपने ही देश के नेताओं को पप्पू, फेंकू आदि उपनामों से सम्बोधित करके विकास से इतर मुद्दों पर लड़ते रहते हैं ? 


आज के दौर में समाचार पत्र तथा पुस्तकों के बजाय हमारे सामान्य ज्ञान का साधन फेसबुक , व्हाट्सएप आदि  बन गया है जो समाज में मीठे विष की तरह है । इसके माध्यम से लोगों में गलतफहमियां फैलाकर उनको धर्म,जाति में बाँटकर देश के मार्गदर्शक नेता सिर्फ सत्ता हथियाने में जुटे हैं। पक्ष-विपक्ष सभी लोग इससे अछूते नहीं हैं। अगर सचमुच देश का विकास ही किया गया होता तो आजादी के इतने वर्षों मेंअब तक ये सारे मुद्दे समाप्त हो जाते जो देश मे शांतिपूर्ण विकास के मार्ग में बाधा बने हुए हैं।आखिर हमसे बाद में आजाद देश कहाँ हैं और हम कहाँ खड़े हैं ?


वर्तमान मोदी सरकार के विकास कार्यो पर संदेह नहीं किया जा सकता किन्तु इन चुनावों में सोशल मीडिया में इस पर कम ही बहँस हुई। टेलीविजन चैनलों पर भी धार्मिक बहँस होती दिखती है जो ठीक नहीं है । अगर किसी धर्म से कल्याण होता तो दुनिया में फैले इतने धर्मों के होते हुए भी लोग दुखी क्यों होते? 


मोदी सरकार के स्वच्छता अभियान, जन धन खाता, शौचायल निर्माण, स्मार्ट सिटी,फसल बीमा, स्वास्थ्य बीमा , जन आयुष , प्रधानमंत्री बीमा योजना, नोटबन्दी, जी एस टी आदि के सकारात्मक नकारात्मक बिंदुओं पर चर्चा करने के बजाय ज्यादातर मीडिया  ने हनुमान दलित, जनरल नाराज, मन्दिर बनने की तिथि, अल्पसंख्यक, आदि नकारात्मक मुद्दों पर चर्चा करते दिखे जिसका दुष्परिणाम धर्म ,जाति के नाम पर मतों का ध्रुवीकरण हो गया । क्या मीडिया का देश के विकास में ऐसा ही योगदान होना चाहिये ? धर्म जाति के  मुद्दों पर बोलने वाले नेताओं को स्वयं ही मीडिया चैनलों को अपने चैनल पर नहीं बोलने देना चाहिये। 

अगर धर्म जाति का मुद्दा इसी तरह से चलता रहा तो वह दिन दूर नहीं जब देश के विकास का साधन ही विनाश का साधन बन जाएगा।

संदीप मिश्रा की कलम से

रिपोर्टर

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