दिलीप कुमार जी का बिदा होना एक पारिवारिक क्षति - शहनाज़ हुसैन

एम डी सिंह की रिपोर्ट

हिंदी सिनेमा के सुपर स्टार दिलीप साहिब का इस दुनिया से बिदा होना मेरे लिए एक  पारिवारिक क्षति है बह एक महान और सरल ब्यक्ति थे तथा मेरे पिता स्वर्गीय जस्टिस नासिर उल्लाह बेग से भावनात्मक तौर पर जुड़े थे दिलीप साहिब के साथ  हमारा तीन पीढ़ियों से पारिवारिक रिश्ता है और उनके चले जाने से  भारतीय सिनेमा में एक युग का अंत हो गया और बह कई ऐसी यादें छोड़ कर गए जो  बरसों तक याद आएँगी मैं बहुत दुखी हूँ , निशब्द हूँ और यह प्रार्थना करती हूँ की उनकी आत्मा को शान्ति मिले ।

दिलीप कुमार जी के निधन से मुझे बरसों पुराने बह पल याद आ गए जब उन्होंने  तीन दशक पहले बर्ष 1991 में ग्रेटर कैलाश 2 में हमारे शहनाज़ हुसैन सिग्नेचर सैलून का उद्घाटन किया था मैंने जब उनसे इस सैलून के उद्घाटन का अनुरोध किया तो मुझे कुछ संसय था की शायद बह इसे स्वीकार न करें लेकिन उन्होंने मेरे अनुरोध को एक दम स्वीकार करते हुए कहा की आप जल्दी से डेट तय कीजिये उन्होंने  सौन्दर्य  में हर्बल के क्षेत्र में किये गए हमारे काम को गहरी रूचि से समझा और पूरी टीम के प्रयासों की सराहना की  उन्होंने  हमारी पूरी टीम के साथ सहज माहौल में चर्चा की और सब के साथ ग्रुप फोटो खिंचबाई बह हमारे घर में एक मेहमान की बजाय परिबरिक सदस्य के तौर पर रहना पसन्द करते थे और हम सब से घुल मिल जाते थे मानो  बह बरसों से हमारे साथ रहते हों ।

बह हिन्दी सिनेमा के पहले सुपर स्टार थे सिल्वर स्क्रीन पर उनकी अदाकारी लोगों को रुला देती थी  जिससे  बह ट्रेजेडी  किंग के रूप में लोकप्रिय हुए लेकिन सामान्य जीवन में बह काफी हँसमुख और सीधे साधे थे दिल्ली में बह जब भी आते तो अक्सर हमारे घर आना होता था और अगर बह ज्यादा ब्यस्त होते थे तो हम लोग उनके मिलने के लिए चले जाते थे लेकिन बह दिल्ली पहुंचने से पहले ही फ़ोन पर अपने आने की सुचना जरूर दे देते थे जिससे उनके बढ़पन और अपने पन का अहसास होता था ।

दिलीप साहिब को घर का खाना बहुत पसन्द था और अगर बह होटल में भी  ठहरते थे तो मैं उनके लिए घर का खाना लेकर पहुंच जाती थी जिसे बह बहुत चाब से खाया करते थे खाने में उनको बरियानी और सादी शाकाहारी सब्ज़ियां दोनों पसन्द दी लेकिन रात्रि में बह डिनर के बाद आइस क्रीम के बेहद शौक़ीन थे ।

बह मुझे हमेशा हर्बल प्रसाधनो की प्रमोशन के लिए प्रेरित करते थे और खुद भी हमेशा हर्बल प्रसाधन ही उपयोग करते थे ।

मेरा यह मानना है की हालाँकि उन्होंने ब्लैक एंड वाइट फिल्मे की तथा उस समय जन संचार माध्यम भी कोई ज्यादा प्रभाबी नहीं थे लेकिन फिर भी  उन्होंने लोकप्रियता के उस  शिखर को छुआ जोकि आजकल सभी जन संचार के संसाधनों के उपयोग से भी सम्भव नहीं हो पा रहा है ।

बह अपने प्रशंसकों की बहुत कद्र करते थे और मुझे याद है की देवदास फ़िल्म हिट होने के बाद जब बह  हमारे घर दिल्ली आये तो हमारे घर के बाहर उनके प्रशंसक जमा होने शुरू हो गए बह अपने प्रसंशकों से मिलने के लिए घर से बाहर निकले और लगभग एक घण्टा तक प्रसंशकों से बातचीत करते रहे और उनको ऑटोग्राफ देकर मुंबई आने का निमंत्रण दिया मुग़ले आज़म , गंगा जमुना , कर्मा, नया दौर जैसी हिट फिल्मों के बादशाह दिलीप कुमार में घमण्ड नाम की चीज कभी भी घर नहीं कर सकी हालाँकि उस ज़माने के समाचार पत्रों , मैगज़ीन आदि  उनकी  तारीफ से भरी पड़ी रहती थीं लेकिन उनका मानना था की कलाकार  का सही आकलन केबल मात्र दर्शक ही कर सकता है ।

सन 1944 में   पहली फिल्म ज्वार भाटा रिलीज़ होने पहले बह काफी नर्वस नज़र आ रहे थे उन्होंने मुझसे से फ़िल्म के सीन , डायरेक्शन , प्रोडक्शन आदि कई पहलुओं पर चर्चा की और  फिल्म रिलीज़ होने के बाद बह दर्शकों के रिस्पांस से ज्यादा सन्तुष्ट नहीं थे लेकिन उन्होंने मुझे बताया की एक कलाकार को दर्शकों की आशाओं के अनुरूप उतरने की हमेशा कोशिश करनी  चाहिए और कलाकार जब दर्शकों से भाबनात्मक रिश्ता स्थापित कर लेता है बही कलाकार ऊंचाइयों को छू सकता है फ़िल्म जुगनू की कामयाबी के बाद बह बेहद आस बस्त और आसाबान दिख रहे थे ।

दिलीप साहिब मेरी हमेशा इज़्ज़त करते थे हालाँकि में उम्र में उनसे बहुत छोटी थी लेकिन जब भी दिल्ली आते तो मेरे लिए एक सुन्दर सा उपहार जरूर लाते थे मैंने आज तक उनके दिए उपहार सुरक्षित रखे हैं   और आज जब में उन उपहारों को देखती हूँ तो मुझे उनमे दिलीप साहिब की आत्मा का अहसास होता है मुझे लगता है की उनकी आत्मा इन  सुन्दर उपहारों की तरह थी जिसने इस दुनिया को हर पल  जीवंत रहने का अहसास करबाया ।

एक सरल हृदय बाले बेहद बिनम्र परिबरिक सदस्य के चले जाने से मुझे ऐसे लग रहा है मानो मैंने अपना मार्गदर्शक , गुरु और संगरक्षक  खो दिया है

रिपोर्टर

संबंधित पोस्ट