दलितों के सन्यासी,आजादी के नायक स्वामी सहजानंद सरस्वती की पुण्यतिथि पर विशेष

जौनपुर ।। सही मायनों में स्वामी जी  का धरा पर अवतरण "एक महामानव के रूप में हुआ । गाजीपुर  जनपद के दुल्लहपुर तहसील के देवा ग्राम में 1889 में स्वामी जी का जन्म हुआ ।बचपन से ही अध्यात्म के प्रति उनके लगाव को देखकर परिवार वालों ने पारिवारिक जीवन में बांधने का बहुत प्रयास किया पर नियति ने उन्हें राष्ट्र के लिए चुना था। प्रारंभिक झंझावातों से निकलकर 1990  में वह काशी आ गए और स्वामी अद्वैतानंद से संन्यास की दीक्षा ग्रहण कर धर्म के प्रति दायित्व का निर्वहन करने के लिए उद्द्यत हो जाते हैं । धार्मिक जगत में तमाम प्रचलित अंध विश्वासों/रूढ़ियों से संघर्ष करते हुए धर्म की वास्तविक व्याख्या समाज में स्थापित करते हैं।

 धर्म के क्षेत्र में अंधविश्वासों की झूठी परिपाटी को देखकर उनका मन बहुत ही खिन्न हुआ ।स्वस्थ धार्मिक स्वरूप को स्थापित करने हेतु उन्होंने शास्त्रार्थ की पद्धति को जीवित करने लगे। उन्होंने विद्वान धर्म आचार्यों की समिति बनाकर जगह-जगह शास्त्रार्थ/ धर्म उपदेश के आयोजन कर अंधविश्वासों को खत्म करने का प्रबल कार्य किया। जन जागरूकता अभियान चलाया इसमें उनको पाखंडी ब्राह्मणों से भी संघर्ष करना पड़ा। काफी दिक्कतें झेलनी पड़ी लेकिन ब्राह्मण विद्वत परिषद ने उनका बखूबी साथ दिया ।समाज में तमाम पाखंड द्वेष पूर्ण धार्मिक ग्रंथों का विरोध करते हुए उन्होंने कर्म कलाप पुस्तक का प्रतिपादन 1926 में किया जो धार्मिक क्रियाकलापों की एकमात्र प्रचलित पुस्तक सिद्ध हुई। इसमें मानव के संस्कारों से लेकर, जन्म से मृत्यु तक के विद्वत पूर्ण विश्लेषण आज भी अकाट्य है ।और मान्यता के रूप में जिसे आज भी संदर्भित किया जाता है। तत्कालीन भारत की दशा और दिशा को देखते हुए राष्ट्र को जाग्रत करने की आवश्यकता थी और एक दंडी सन्यासी होते हुए भी स्वामी जी ने अपने जीवन का प्रमुख उद्देश्य राष्ट्र की सेवा में अर्पित करने को समझा । वह स्वतंत्रता संग्राम में कूद पड़े ।संभवत विश्व में यह इकलौता प्रयोग था जो कालांतर में उनको एक संन्यासी योद्धा के रूप में प्रचारित किया ।स्वामी जी का रुझान कांग्रेस के प्रति होने लगा।उसके प्रभाव में 1913 में पहली बार अखिल भारतीय भूमिहार ब्राह्मण महासभा जिसकी अध्यक्षता हथुवा नरेश जी की ने की थी उसमें सम्मिलित हुए और कांग्रेस को स्थापित करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई।समाज के उत्थान के लिए तमाम कार्यक्रमों को विस्तार रूप दिया। 1914 में काशी से ही भूमिहार ब्राह्मण पत्रिका का उन्होंने संपादन किया और अयाचक ब्राह्मणों के वर्ग को संपन्न बुद्धिमान और परिश्रम सील बनाने के लिए काफी प्रयत्न किया।आज भी काशी के चेतगंज मुहल्ले में यह प्रेस है,शर्माजी चलाते हैं।इसी लगन में भूमिहार ब्राह्मण समाज की रसीदें, पैड इत्यादि सामग्री छपवाई जाती थी।स्वयं मैं लेखक और प्रेम प्रकाश नारायण सिंह,गोपाल राय जी वहां जाकर मिलते रहते थे।        

 समग्र भारत राष्ट्र के उत्थान के लिए सर्वप्रथम उन्होंने आजादी को चुना। उस समय अंग्रेजों से संघर्ष करते हुए कांग्रेस हेतु उत्कृष्ट कार्य से प्रभावित होकर 1921 में गाजीपुर जिला कांग्रेश कमेटी के अध्यक्ष के रूप में उनको चुना गया और उन्होंने पूरे पूर्वांचल में अंग्रेजो के खिलाफ संघर्ष का बिगुल बजा दिया ।उनके कार्यों, क्रांतिकारी विचारों से भयभीत अंग्रेजों ने उन्हें सर्वप्रथम जेल भेजा। जेल में रहते हुए उन्होंने समाज को जागृत करने के लिए पुस्तकों का लेखन जेल में ही आरंभ किया । 1925 में उन्होंने ब्रह्मर्षि वंश बिस्तर नाम से ग्रंथ का प्रतिपादन किया जो भारतवर्ष में अयाचक ब्राह्मणों के समूह के विस्तृत विवरण के रूप में उल्लिखित है ।सही मायनों में उन्होंने प्रगतिशील अयाचक ब्राह्मण समूह को समस्त भारत में पहचान दिलाया ।आज भी हमारा समाज अपने पूर्व गौरवशाली इतिहास की जानकारी इसी पुस्तक से ग्रहण करता है।स्वामी जी ने उत्तरोत्तर सामाजिक कार्य करते हुए 1927 में किसान सभा का गठन किया जो स्वतंत्रता के इतिहास में अभिनव प्रयोग के तौर पर देखा जाता है।  किसानों को स्वतंत्रता संग्राम में भाग लेने के लिए प्रेरित किया ।किसान एक संघर्ष पुस्तक लिख कर किसानों,गरीबों,दलितों के उत्थान हेतु संघर्ष कर समूचे विश्व को स्वामी जी ने झकझोर दिया।                  

उन्होंने लिखा,"रोटी  भगवान है,और रोटी पैदा करने वाला किसान भगवान से भी बढ़कर है।"

शासन को भी उन्होंने चेताया।

*जो अन्न वस्त्र उपजाएगा,*

*अब सो कानून बनाएगा।*

*भारतवर्ष उसी का है।*

*शासन वही चलाएगा।।*


 आंदोलनों ने अंग्रेजों की गति को कुंद कर दिया ।महात्मा गांधी के असहयोग आंदोलन की स्पष्ट छाप किसान सभा के विद्रोह के रूप में हर जगह देखने को मिलती लगी।  भारतीय किसान क्रांति से प्रेरित होकर तत्कालीन पाश्चात्य राष्ट्र जो अंग्रेजों  के विरुद्ध लड़ रहे थे उन्होंने आजादी का बिगुल बजा दियाऔर संघर्ष करने लगे। भारत के किसान क्रांति से प्रेरित होकर लैट्रिन फ्रांस आदि देशों में जो किसान क्रांतियां हुई जिनको वैश्विक परिदृश्य पर पहचान मिली ,वह स्वामी जी के सफल प्रयोग का ही परिणाम थी।स्वामी जी के विराट व्यक्तित्व को देखते हुए 1935 में कांग्रेस ने उन्हें अखिल भारतीय कांग्रेस समिति का सदस्य चुन लिया। कांग्रेस पूरे भारत में विस्तारित रूप से लोगों में चेतना पैदा कर रही थी और अंग्रेजों को भारत छोड़ने के लिए विवश कर रही थी। एक उदाहरण के तौर पर एक घटना का जिक्र अवश्यंभावी है 1940 के रामगढ़ बिहार कांग्रेस के अधिवेशन में जो नेताजी सुभाष चंद्र बोस की अध्यक्षता में हो रहा था उसके स्वागत अध्यक्ष स्वामी सहजानंद सरस्वती थे। इसी काल में कांग्रेस के सम्मेलन में मतभेद उजागर होने लगे और गांधीजी की एक पक्षीय नीतियों के फलस्वरूप कांग्रेस अध्यक्ष के चुनाव के लिए नेताजी सुभाष चंद्र बोस के प्रतिद्वंदी के तौर पर पट्टाभी सीतारामैया को आगे किया गया ।कांग्रेसमें सभा स्थल पर ही लगभग दो फाड़ हो गई नेताजी सुभाष चंद्र बोस के खेमे के स्वागत अध्यक्ष स्वामी सहजानंद सरस्वती थे और सीतारमैया के स्वागत अध्यक्ष गांधी जी।  सभा की शुरुआत होते ही लगभग सारी जनसंख्या स्वामी जी के पक्ष की तरफ उमड़ पड़ी। अंततः सीता रमैया की हार हुई जिसे गांधी जी ने अपनी व्यक्तिगत हार कह कर स्वीकार किया। परंतु गांधीजी की विवशता को देखते हुए नेताजी सुभाष चंद्र बोस ने अध्यक्ष पद से त्यागपत्र दे दिया और कांग्रेस से नाता तोड़ लिया। स्वामी जी एवं नेता जी ने एक अलग गुट बनाकर फॉरवर्ड ब्लॉक की स्थापना कर स्वतंत्रता संग्राम की लड़ाई लड़ने लगे।

स्वामीजी के उदार चरित्र तथा त्याग की एक मिसाल देना जरूरी है। उद्धरण यह है की हीरक जयंती समारोह बिहटा में 1949 में आयोजित था जिसमें दान स्वरूप स्वामी जी को  ₹6000000 साठ लाख की थैली भेंट की गई जिसे स्वामी जी ने तदर्थ दान रूप में दे दी। जो कि बाद में आश्रम स्थापना से लेकर समाज के उत्थान आजादी के लड़ाई में योगदान के तौर पर किया गया। ऐसे उदार मना स्वामी जी थे।

कांग्रेस और अंग्रेजों से व्यथित होकर नेताजी सुभाष चंद्र बोस किसी तरह भारत से बाहर जा सके और आजादी की लड़ाई लड़ने लगे । उस समय के संपन्न राष्ट्र जर्मनी जापान आदि से संपर्क कर जब अंग्रेजों के विरुद्ध संघर्ष कर रहे थे उस समय बर्लिन ब्रॉडकास्ट में नेताजी सुभाष चंद्र बोस का यह उद्धरण था की स्वामी जी आप किसानों को मिलाकर संघर्ष छेड़ दीजिए और मैं बाह्य आक्रमण करता हूं ।अंग्रेजों से हम मुक्ति दिला कर ही रहेंगे ।इतना अटूट विश्वास था नेताजी का अपने राजनीतिक गुरु स्वामी सहजानंद सरस्वती जी पर ।       स्वामी सहजानंद सरस्वती जी एक विराट पुरुष थे। संघर्षों की एक जीती जागती मिसाल थे ।यह अलग विषय है कि भारत के लिखित स्वतंत्रता संग्राम इतिहास में उन महामानव को अपेक्षित जगह नहीं मिल सकी। हमारे क्रांतिकारी बलिदानीयों को जो सम्मान मिलना चाहिए था वह नहीं मिला। संभवत देर से आजादी मिलने का एक कारण यह भी था ।खैर छोड़िए आज हम चर्चा कर रहे हैं स्वामी सहजानंद सरस्वती की 73 वीं पुण्यतिथि पर। स्वामी जी के बारे में लिखना किसी लेख में ,किसी एक पुस्तक में या किसी एक गोष्ठी में संभव नहीं है। वह विराट पुरुष ,विराट व्यक्तित्व और विराट जिजीविषा के संवाहक थे ।  बड़े हर्ष का विषय है कि भूमिहार ब्राह्मण समाज वाराणसी स्वामी जी की पुण्यतिथि पर इस बार वाराणसी में  जो एक अभिनव प्रयोग कर  रक्तदान शिविर का आयोजन कर रहा है, समाज को प्रत्यक्ष लाभान्वित करने का प्रयास है ।यह अपने आप में अद्भुत है  और आने वाले वर्षों में युवा पीढ़ियों के लिए एक कर्तव्य बोध को ज्ञापित करता है ।26 जून को होने वाले रक्तदान कार्यक्रम में जिस जोशो खरोश से समाज के युवा व सदस्यगण लगे हुए हैं इनकी जितनी भी प्रशंसा की जाए वह कम ही है।

एक स्वतंत्रता संग्राम सेनानी,एक दलित किसान मजदूरों गरीबों के मसीहा,समाज के प्रेरणा पुरुष के चरणों में कोटि कोटि वंदन।।



सदा नंद राय

सामाजिक कार्यकर्ता, पदाधिकारी  स्वामी सहजानंद सरस्वती विचार मंच। 

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