धर्म निरपेक्षता राष्ट्र का मान है - कविता

धर्म निरपेक्षता इस देश के लिए पहेली की तरह बनी हुई है,

इसके नकली आवरण को उभारती कविता आप के साथ साझा कर रहा हूँ!


धर्मनिरपेक्षता राष्ट्र का मान है,

एक अच्छे प्रशासन की पहचान है

हो जहाँ सारे धर्मों की सम भावना

यह मनुजताको अर्पित अनुष्ठान है  


विश्ववन्धुत्व भारत का उद्घोष है

धर्म के मर्म के वोध का कोष है

हम अतिथि पूजते देवता की तरह

ये मेरा देश समता का परिवेश है


कुछ नराधम विषमता का विष बो रहे,

शत्रुता के भवन को खड़ा कर रहे

धर्मनिरपेक्षता इतनी आहत यहां

द्वेष मे देश का ही दहन कर रहे


हम सहजता मनुजता की गीता पढ़ें,

वंधुव्यवहार की सीढ़ियों पर चढ़ेँ

अपनी संवेदनायें ही घातक हुईं

जो छली क्रूर थे वे तने हैं खड़े 


धर्मनिरपेक्षता का कवच ओढ़ कर

वैर से न्याय की नीतियां तोड़कर

खोखली कर दिए धर्मनिरपेक्षता

जा चुकी है कहीं दूर मुँह मोड़कर 


आइये बैठिये, आइना देखिए

कुछ इधर देखिये, कुछ उधर देखिये,

धर्मनिरपेक्षता का कहर देखिये

लुट रहे हैं शहर के शहर देखिये


ये है कश्मीर कश्यप की कर्मस्थली,

सेब केसर के पेड़ों से फूली फली

झील का नीर फूलों से सुरभित रहा

स्वर्ग सी थी ढली, देखने मे भली


एक दिन वर्फ से आग उठने लगी

जिन्दगी थी अचानक तड़पने लगी

बेसहारों का कोई सहारा न था

मौत चारों तरफ से वरसने लगी


अस्मिता निर्बलाओं की लुटती रही

लाश की ढेरियां सिर्फ बढ़ती रही

धर्मनिरपेक्षता के न थे रहनुमा

लाज लुटती रही, सांस घुटती रही


क्रूरता का गजब नग्न नर्तन चला

जो विछड़ के गया फिर न वापस मिला

न्यायप्रियता के ढोंगी कहां छिप गए

ना किसी को दया, ना किसी को गिला


कौन असहिष्णु या फिर गुनहगार है

किसके हाथों में नफ़रत की तलवार है

हाथ किसके लहू में नहाये हुए

किसका वर्षों से हिंसा का व्यापार है


फिर सुनो ढोंगियों का अधर्माचरण

धर्मनिरपेक्षता का किया अपहरण

पापियों ने जला दी भरी रेल को

हर सवारी का शव मे हुआ अंतरण


गोधरा की पुरानी कहानी यही

रक्त की फूट कर तेज धारा बही

रेल तो बन गयी एक ज्वालामुखी

वह धरा गोधरा की धधकती रही


हाय निरुपाय, निर्दोष मारे गये

घर गृहष्थी के सारे सहारे गये

जल चुकी लाश के अस्थि पंजर बचे

रोशनी के अनेकों दिये बुझ गये


दूर तक हिल गया गोधरा में गगन 

उठ रहा था धुआँ हो रहा था रुदन

सुन के दिल्ली उसे अनसुना कर गयी

धर्म निरपेक्षता हो चुकी थी नगन


हाथ मुंसिफ के, मुजरिम के हमदर्द थे

न्याय की याचना कौन किससे करे

धर्म निरपेक्षता ढाल सत्ता की थी

लोग तो रह गये हैं ठगे के ठगे


गिरगिटी रंग की धर्मनिरपेक्षता

है तो सापेक्षता, नाम निरपेक्षता

इसको अपनी तरह ढालते लोग हैं

ना हमें ही पता, ना तुम्हे ही पता 


रचनाकार--

आचार्य चन्द्र शेखर पाण्डेय

गैरवाह, जौनपुर

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