गर्मी की छुट्टियां शहर नहीं गांव की माटी में बच्चें का मनायें



गांव की माटी में जो सुकून है दुनिया के किसी गैजेट में नहीं


रोहतास। जिले के स्कूल कालेज की गर्मी की छुट्टियां हो चुकी है। और दो चार दिन में हों जायेगी। सभी छोटे बच्चे कुछ समय के लिए बिंदास हो जायेंगे। इस संबंध में काशी काव्य संगम रोहतास जिले के जिला संयोजक कवि सह साहित्यकार सुनील कुमार रोहतास ने किशुनपुरा गांव से बताते हैं कि गर्मी की छुट्टियों का नाम सुनते ही बच्चों के चेहरों पर जो मुस्कान खिलती थी, वह अब मोबाइल स्क्रीन की चमक में कहीं गुम हो गई है। पहले छुट्टियों का मतलब होता था– आम के बाग, नदी में तैराकी, पतंगबाज़ी, गलियों में क्रिकेट और दादी-नानी के गांव की कहानियों में खो जाना। आजकल छुट्टियां जैसे मोबाइल गेम्स, यूट्यूब वीडियोज़ और कार्टून चैनलों की गुलामी बन गई हैं। गर्मी की छुट्टियों को "स्क्रीनफ्री" बनाकर बच्चों को फिर से वास्तविक, जीवंत और रचनात्मक दुनिया से जोड़ना चाहिए।


आधुनिक जीवनशैली ने बच्चों के खेलने-कूदने की आज़ादी को छीन लिया है। माता-पिता भी अक्सर व्यस्त रहते हैं, और मोबाइल एक आसान समाधान लगता है। पर यही “सुविधा” बच्चों के मानसिक, शारीरिक और सामाजिक विकास में सबसे बड़ा रोड़ा बन रही है। घंटों स्क्रीन देखने से उनकी आँखें कमजोर होती हैं, एकाग्रता घटती है और रचनात्मकता का क्षय होता है। इसलिए जरूरी है कि अभिभावक इन छुट्टियों में बच्चों के साथ मिलकर एक ठोस योजना बनाएं – जिसमें टीवी और मोबाइल का समय सीमित हो और बाहरी, सामूहिक व रचनात्मक गतिविधियों को बढ़ावा मिले।


बच्चों को घर के बाहर खेलने के लिए प्रेरित करना अब अभिभावकों की प्राथमिक जिम्मेदारी होनी चाहिए। उन्हें साइकिल चलाने, बैडमिंटन, क्रिकेट, कबड्डी जैसे खेलों में भाग लेने दें। मोहल्ले में यदि दो-चार बच्चे भी संगठित हों तो सामूहिक खेलों का आनंद दोगुना हो सकता है। मिट्टी से खेलना, पेड़ पर चढ़ना, बीज बोना, पानी देना जैसे छोटे-छोटे कार्य भी बच्चों में प्रकृति के प्रति लगाव और ज़िम्मेदारी की भावना भरते हैं।


एक बेहतरीन विकल्प यह भी है कि अभिभावक बच्चों को गर्मी की छुट्टियों में गांव भेजें – वहां जहां हवा में अब भी आम और नीम की खुशबू है, जहां नदी बहती है और सूरज ढलते ही बच्चे गली में “चोर-सिपाही” खेलने निकल पड़ते हैं। गांव की जिंदगी बच्चों को ज़मीन से जोड़े रखती है। वहां वे खेतों में घूम सकते हैं, मवेशियों को चारा डाल सकते हैं, कुएं या हैंडपंप से पानी निकालना सीख सकते हैं और सबसे ज़रूरी – दादी-नानी की कहानियां सुनकर कल्पनाशक्ति और रिश्तों की गहराई समझ सकते हैं। ये छुट्टियां उनके जीवन में ऐसा अनुभव भर सकती हैं जो मोबाइल की किसी भी स्क्रीन से नहीं मिल सकता।


इन छुट्टियों में रचनात्मक गतिविधियों को भी समय दें। चित्र बनाना, कविताएं लिखना, मिट्टी या पेपर से कुछ बनाना, कहानी सुनाना या नाटक करना – ऐसे कार्य बच्चों के अंदर छिपे कलाकार को बाहर लाते हैं। कई अभिभावक सोचते हैं कि "हमारे बच्चे को कला में रुचि नहीं", जबकि वास्तविकता यह है कि उन्होंने कभी मौका ही नहीं दिया। इस बार गर्मी की छुट्टियों में बच्चों को एक “स्क्रीन टाइम” के बजाय “क्रिएटिव टाइम” दीजिए – देखिए वे क्या-क्या कर सकते हैं।


अभिभावकों को यह समझना होगा कि बच्चों को स्क्रीन से दूर रखना “सजा” नहीं बल्कि “संरक्षण” है। इसके लिए वे खुद भी उदाहरण बनें – बच्चों के सामने घंटों फोन में लगे रहना और फिर उनसे मोबाइल छोड़ने को कहना – यह दोहरापन काम नहीं करता। बेहतर होगा कि वे बच्चों के साथ समय बिताएं – बोर्ड गेम्स खेलें, साथ में खाना पकाएं, शाम की सैर पर जाएं या साथ मिलकर कोई परियोजना बनाएं – जैसे घर में एक छोटा गार्डन। जब बच्चे यह देखेंगे कि माता-पिता भी आनंद ले रहे हैं, तो वे भी स्क्रीन के मोह से आसानी से बाहर आएंगे।


बचपन की सबसे सुनहरी यादें अगर किसी जगह से जुड़ी होती हैं, तो वह है – गांव। वहां की हर बात में एक मासूमियत और अपनापन होता था। गर्मी की छुट्टियों का मतलब था – सुबह की ठंडी ओस, नंगे पैर खेतों में दौड़ना, तालाब में नहाना और दोपहर को पेड़ की छांव में दादी की कहानियों में खो जाना। आज भले ही एयरकंडीशनर वाले कमरे बच्चों को ज्यादा सुखद लगें, पर गांव की मिट्टी में जो सुकून है, वह दुनिया के किसी गैजेट में नहीं मिलता। घर के आंगन में सोते हुए तारे गिनना, चूल्हे की रोटी खाना, और बिना किसी डर के हर दरवाज़े पर अपनापन महसूस करना – यही था असली आनंद।


गांव में बच्चों को सिर्फ खेल ही नहीं, जीवन की शिक्षा भी सहज रूप में मिलती है। जब वे भोर में उठकर पशुओं को चारा डालते हैं, या खेतों में पानी लगाते हैं, तो परिश्रम की अहमियत खुद-ब-खुद समझने लगते हैं। वहां का हर काम जैसे एक छोटा पाठ है – प्रकृति से तालमेल, परिवार से जुड़ाव और जीवन के प्रति जिम्मेदारी का। यह शिक्षा किसी पाठ्यपुस्तक से नहीं, अनुभवों से मिलती है – और यही अनुभव जीवन भर उनके व्यक्तित्व का हिस्सा बन जाते हैं।


आज के बच्चों को भी इन अनुभवों से जुड़ने की जरूरत है। अभिभावकों को चाहिए कि वे गांव जाने को किसी “पुरानी बात” का हिस्सा न समझें, बल्कि बच्चों को गर्व से बताएं कि यहीं से जीवन की सच्ची शुरुआत होती है। गांव में बिताई छुट्टियां बच्चों को “जुड़ाव” सिखाती हैं – प्रकृति से, रिश्तों से, समाज से। जब वे देखेंगे कि दूध सीधे गाय से निकलता है, सब्ज़ी खेत से आती है, और खाना मिट्टी के चूल्हे पर बनता है – तो उपभोग से हटकर श्रम और कृतज्ञता का भाव उनके भीतर जगेगा।


गांव के बच्चे भी आज बदल रहे हैं, लेकिन गर्मियों की छुट्टियां अभी भी वहां का उल्लास भरा त्यौहार होती हैं। ऐसे में यदि शहर के बच्चे भी गांव जाएं, तो दोनों के बीच एक सुंदर संवाद बन सकता है। गांव के बच्चों से वे मिट्टी का रिश्ता सीखें और अपने साथ शहर की सुविधाओं की झलक साझा करें। यह अद्भुत समरसता बच्चों के दिलों में जीवन भर की स्मृतियां भर देगी।


इसलिए, इस बार जब आप गर्मी की छुट्टियों की योजना बनाएं, तो किसी मॉल या थीम पार्क की जगह गांव का रुख करें। अपने बच्चों को बताएं कि असली दुनिया वहां है, जहां रिश्ते बिना वाई-फाई के जुड़ते हैं, जहां मोबाइल की घंटी नहीं, बल्कि कोयल की कूक सुनाई देती है। गांव सिर्फ एक जगह नहीं, एक एहसास है – जिसे बच्चों के मन में बोना जरूरी है। ताकि आने वाले वर्षों में भी जब वे अपने बचपन को याद करें, तो मोबाइल गेम्स नहीं, गांव की गलियों में दौड़ती अपनी परछाई उन्हें मुस्कराने पर मजबूर कर दे।


संक्षेप में कहें तो गर्मी की छुट्टियां सिर्फ आराम के लिए नहीं होतीं, यह बच्चों के विकास की सबसे महत्वपूर्ण अवधि होती हैं। इस बार इन छुट्टियों को तकनीक से नहीं, ताजगी से भरिए। उन्हें गांव की मिट्टी, खेल के पसीने और कहानियों की धूप से भरिए। जब वे अपने बचपन को जिएंगे – असली दुनिया में, असली रिश्तों में – तभी वे बड़े होकर संवेदनशील, सशक्त और सृजनशील नागरिक बन पाएंगे। तो आइए, इस बार संकल्प लें – स्क्रीनफ्री हो गर्मी की छुट्टियां! एवं गांव जाकर बच्चों की अपनी गांव की माटी से पुलकित पल्लवित पुष्पित खेल कूद दौड का आनंद जरूर दिलाएं।

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