फिर हम सब

वे सब अड़े थे

दिल्ली की सीमा पर खड़े थे 
भीतर जाने को बढ़े थे
लाल किले पर चढ़े थे
मैं पूछता हूं मेरे भाई
वे किसके चक्कर में पड़े थे ?

उनके , जो निशदिन 
मालपुए चांपते हैं ?
जिनके डर से
मजदूरों के हाड़ कांपते हैं ?
या उन सबके
जो हर पांच साल बाद
संसद जाने के लिए
घर -घर की दहलीजें नापते हैं ?

आँख तापते लोगों की 
छाती ठंडी हुई
चाहे राष्ट्र की इज्जत में 
भरपूर मंदी हुई 

किसके कहने पर कबूतर 
इतने नंगे हुए
राजधानी की सड़कों पर 
दिनदहाड़े दंगे हुए ?

आज तंत्र हिला है
फूंका बांधा मंत्र हिला है
फिर भी सारे गण दुखी नहीं हैं
चिकने चुपड़े शब्दों का एक किला
मालती के फूल की तरह खिला है

किस गणतंत्र की बात कर रहे 
वह जो राज पथ पर चला
या वह जो लाल किले पर ढला ?
वे सब दुखी हैं 
जो सब कुछ कर चुके
वे सब चुप हैं 
जो कुछ न कर सके

फिर हम सब -------------?


.............डॉ एम डी सिंह

रिपोर्टर

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