हॉकी के जादूगर ध्यानचंद : डॉक्टर गिरधारी लाल महाजन

हॉकी के जादूगर ध्यान चन्द  का जन्म 29 अगस्त 2005 को इलाहाबाद में एक राजपूत परिबार में हुआ /उनके जन्म दिबस को राष्ट्रीय खेल दिबस के रूप में मनाया जाता है /अपनी आरम्भिक शिक्षा प्राप्त करने के बाद बह 16 बर्ष की आयु में सेना में ब्राह्मण रेजीमेण्ट में सिपाही के पद पर भर्ती हुए और मेजर के पद से सेवा निबृत हुए  /उनके पिता सेना में सूबेदार थे।/उन्हें हॉकी के प्रति रेजीमेण्ट के एक सूबेदार मेजर तिवारी ने आकर्षित किया और फिर ध्यान चन्द ने पीछे मुड़ कर नहीं देखा /उन्होंने अपने खेल जीबन में लगभग 1000 गोल किये जिसमे से अंतर्राष्ट्रीय मैचों में लगभग 400 गोल किये /

वे कुछ दिन बाद ही अपनी रेजिमेण्ट की टीम में चुन लिये गये। उनका मूल नाम ध्यानसिंह था; पर वे प्रायः चाँदनी रात में अकेले घण्टों तक हॉकी का अभ्यास करते रहते थे। इससे उनके साथी तथा सेना के अधिकारी उन्हें ‘चाँद’ कहने लगे। फिर तो यह उनके नाम के साथ ऐसा जुड़ा कि वे ध्यानसिंह से ध्यानचन्द हो गये। आगे चलकर वे ‘दद्दा’ ध्यानचन्द कहलाने लगे।

चार साल तक ध्यानचन्द अपनी रेजिमेण्ट की टीम में रहे। 1926 में वे सेना एकादश और फिर राष्ट्रीय टीम में चुन लिये गये। इसी साल भारतीय टीम ने न्यूजीलैण्ड का दौरा किया। इस दौरे में पूरे विश्व ने उनकी अद्भुत प्रतिभा को देखा। गेंद उनके पास आने के बाद फिर किसी अन्य खिलाड़ी तक नहीं जा पाती थी। कई बार उनकी हॉकी की जाँच की गयी, कि उसमें गोंद तो नहीं लगी है। अनेक बार खेल के बीच में उनकी हॉकी बदली गयी; पर वे तो अभ्यास के धनी थे। वे उल्टी हॉकी से भी उसी कुशलता से खेल लेते थे। इसीलिए उन्हें लोग हॉकी का जादूगर’ कहते थे।

भारत ने सर्वप्रथम 1928 के एम्सटर्डम ओलम्पिक में भाग लिया। ध्यानचन्द भी इस दल में थे। इससे पूर्व इंग्लैण्ड ही हॉकी का स्वर्ण जीतता था; पर इस बार भारत से हारने के भय से उसने हॉकी प्रतियोगिता में भाग ही नहीं लिया। भारत ने इसमें स्वर्ण पदक जीता। 1936 के बर्लिन ओलम्पिक के समय उन्हें भारतीय दल का कप्तान बनाया गया। इसमें भी भारत ने स्वर्ण जीता। इसके बाद 1948 के ओलम्पिक में भारतीय दल ने कुल 29 गोल किये थे। इनमें से 15 अकेले ध्यानचन्द के ही थे। इन तीन ओलम्पिक में उन्होंने 12 मैचों में 38 गोल किये।

1936 के बर्लिन ओलम्पिक के तैयारी खेलों में जर्मनी ने भारत को 4-1 से हरा दिया था। फाइनल के समय फिर से दोनों टीमों की भिड़न्त हुई। प्रथम भाग में दोनों टीम 1-1 से बराबरी पर थीं। मध्यान्तर में ध्यानचन्द ने सब खिलाड़ियों को तिरंगा झण्डा दिखाकर प्रेरित किया। इससे सबमें जोश भर गया और उन्होंने धड़ाधड़ सात गोल कर डाले। इस प्रकार भारत 8-1 से विजयी हुआ। उस दिन 15 अगस्त था। कौन जानता था कि 11 साल बाद इसी दिन भारतीय तिरंगा पूरी शान से देश भर में फहरा उठेगा।

1926 से 1948 तक ध्यानचन्द दुनिया में जहाँ भी हॉकी खेलने गये, वहाँ दर्शक उनकी कलाइयों का चमत्कार देखने के लिए उमड़ आते थे। आस्ट्रिया की राजधानी वियना के एक स्टेडियम में उनकी प्रतिमा ही स्थापित कर दी गयी। 42 वर्ष की अवस्था में उन्होंने अन्तरराष्ट्रीय हॉकी से संन्यास ले लिया। कुछ समय वे राष्ट्रीय खेल संस्थान में हॉकी के प्रशिक्षक भी रहे।

भारत के इस महान सपूत को शासन ने 1956 में ‘पद्मभूषण’ से सम्मानित किया। 3 दिसम्बर, 1979 को उनका देहान्त हुआ। उनका जन्मदिवस 29 अगस्त भारत में ‘खेल दिवस’ के रूप में मनाया जाता है।

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