मां की ममता और पिता का प्यार
- एबी न्यूज, संवाददाता
- Dec 01, 2018
- 535 views
मत गुस्सा करना अपनी मां पर यारों वो मां की दुआ ही है जो तुम्हें हर मुसीबत से बचाती है।
मैंने मां के कंधे पर सिर रखकर के पूछा"मां कब तक अपने कंधे पर सोने दोगी मुझे मां ने कहा जब तक लोग मुझे अपने कंधे पर न उठा ले।
मेरी मां आज भी अनपढ़ ही है मैं रोटी एक मांगता हूं वो दो लाकर देती है।
मेरी तकदीर मे एक भी गम नहीं होता अगर तकदीर लिखने का हक मेरी मां को होता।
जब एक रोटी के चार टुकड़े हों और खाने वाले पांच"तब मुझे भूख नहीं है"ऐसा कहने वाली सिर्फ मां होती है।
आज रोटी के पिछे भागता हूं तो याद आती है मुझे रोटी खिलाने के लिए मां मेरे पीछे भागती थी।
न जाने कितने दुख कमाता है एक पिता औलाद की खुशी खरीदने के लिए फिर भी उसी के घर में एक कोना नहीं मिलता मां-बाप को ठहरने के लिए।
एक पिता हमेशा नीम के पेड़ जैसा होता है जिसके पत्ते भले ही कड़वे हो पर वो छाया हमेशा ठंडी देता है।
मजबूर पिता द्वारा कहे गए भावुक शब्द"बोझ ईंटों का और बढ़ा दो साहब"मेरे बच्चे ने आज एक खिलौने की फरमाइश की है।
दम तोड़ देती है मां-बाप की ममता जब बच्चे कहते है की तुमने" किया ही क्या है" हमारे लिए
ठंडी रोटी अक्सर उनके ही नसीब में होती हैं। जो अपनों के लिए कमाई करके देर से घर लौटते हैं।
मां-बाप की दवाई की पर्ची अक्सर गुम हो जाती है पर लोग वसीयत के कागज बहुत अच्छी तरह सम्भाल के रखते हैं।
घर मे चाहे कितने ही लोग क्यो न हो अगर मां न दिखे तो घर खाली-खाली ही लगता है।
मां और पिता के रोल में बस इतना सा फर्क है मां का रोल जीते-जी समझ में आता है और पिता का रोल उनके चले जाने के बाद।
माता-पिता की छाया में ही जीवन संवरता है। माता-पिता , जो नि:स्वार्थ भावना की मूर्ति हैं,वे संतान को ममता,त्याग, परोपकार,स्नेह, जीवन जीने की कला सिखाते हैं। माता और पिता इन दोनों स्तंभों पर भारतीय संस्कृति मजबूती से स्थिर है। माता-पिता भारतीय संस्कृति के दो ध्रुव हैं। मां शब्द ही इस संसार का सबसे सुंदर शब्द है। इसमें क्या नहीं है वात्सल्य,मोह,माया,अपनापन,स्नेह,आकाश के समान विशाल मन, सागर के समान हृदय (अंत:करण),इन सबका संगम ही है मां।न जाने कितने कवियों, साहित्यकारों ने मां के लिए न जाने कितने लिखें होंगें। लेकिन मां के मन की विशालता,अंत:करण की करुणा मापना आसान नहीं है। परमेश्वर की निश्छल भक्ति का अर्थ ही मां है। ईश्वर का रूप कैसा है,यह मां का रूप देखकर जाना जा सकता है। ईश्वर के असंख्य रूप मां की आंखों में झलकते हैं। संतान अगर मां की आंखों के तारे होते हैं, तो मां भी उनकी प्रेरणा रहती है।कुपुत्र अनेक जन्मते हैं,पर कुमाता मिलना मुश्किल है।वेद वाक्य के अनुसार प्रथम नमस्कार मां को करना चाहिए।सारे संसार की सर्वसंपन्न,सर्वमांगल्य,सारी शुचिता फीकी पड़ जाती है मां की महत्ता के सामने। सारे संसार का प्रेम मां रूपी शब्द में व्यक्त कर सकते हैं। जन्मजात दृष्टिहीन संतान को भी मां उतनी ही ममता से बड़ा करती है। दृष्टिहीन संतान अपनी दृष्टिहीनता से ज्यादा इस बात पर अपनी दुर्दशा व्यक्त करता है कि उसका लालन-पालन करने वाली मां कैसी है,वह देख नहीं सकता,व्यक्त कर नहीं सकता। मां को देखने के लिए भी दृष्टि चाहिए होती है। आंखें होते हुए भी मां को न देख सकने वाले बहुतायत में होते हैं। ईश्वर का दिव्य स्वरूप एक बार देख सकते हैं,मगर मां के विशाल मन की थाह लेने के लिए बड़ी दिव्य दृष्टि लगती है। मां यानी ईश्वर द्वारा मानव को दिया हुआ अनमोल उपहार। दूसरा नमस्कार यानी पितृदेव। पिता सही अर्थों में भाग्य-विधाता रहता है। जीवन को योग्य दिशा दिखलाने वाला महत्त्वपूर्ण कार्य वह सतत करता है।विशेषता यह कि पिता पर कविताएं कम ही लिखी गई। कारण कुछ भी रहे हों,मगर कविता की चौखट में पितृकर्तव्य अधूरे ही रहे। कभी गंभीर , कभी हंसमुख,मन ही मन स्थिति को समझकर पारिवारिक संकटों से जूझने वाले पिता क्या और कितना सहन करते होंगे,इसकी कल्पना करना आसान नहीं है। माता-पिता व संतान का नाता पवित्र है। माता-पिता को ही प्रथम गुरु समझा जाता है। माता-पिता ही जीवन का मार्ग दिखलाते हैं। माता-पिता के अनंत उपकार संतान पर रहते हैं। संसार में सब कुछ दोबारा मिल जाता है, लेकिन माता-पिता नहीं मिलते। आज आधुनिक युग का जो चित्र दिखाई दे रहा है, उसमें इस महान पवित्र संबंध की अवहेलना होती दिखाई दे रही है। कहते हैं व्यक्ति जिंदा रहता है,तब तक उसको महत्वहीन समझा जाता है, उसके जाने के पश्चात ही उसका मूल्य समझ में आता है। कालचक्र घूम रहा है, फिर भी माता-पिता का संबंध अभंग है। संतान के लिए उनके ऋण कभी पुरे नहीं होते। अतः संतान को उनकी मनोभाव से सेवा करनी चाहिए। आज आधुनिकता के अंधे प्रवाह में बहकर माता-पिता को बोझ माना जाने लगा है। यहां तक आदेशित किया जाने लगा है कि साथ-साथ रहना है तो सब धन, संपत्ति उनके (संतान) नाम कर दें या फिर अलग रहें। वृद्धाश्रम या इसी प्रकार की दूसरी व्यवस्था का क्या अर्थ है।वह भी एक जमाना था, जब श्रवण कुमार जैसे पुत्र ने अपने अंधे माता-पिता की सेवा में अपने प्राण न्यौछावर कर दिए थे। आधुनिक श्रवण कुमार आधुनिकता के आकर्षण में धन कमाने की अंधीदौड़ में वृद्ध माता-पिता को जीवन के अंतिम दौर में अनदेखी करते हैं।माता-पिता,जो नि:स्वार्थ भावना की मूर्ति हैं,वे संतान को ममता, त्याग, परोपकार,स्नेह, जीवन जीने की कला सिखाते हैं। माता-पिता की सेवा और उनकी आज्ञा पालन से बढ़कर कोई धर्म नहीं है। पिता-पुत्र संबंधों का सबसे उदात्त स्वरूप राम और दसरथ के उदाहरण से मिलता है। पिता की आज्ञा को सर्वोच्च कर्तव्य मानना और उसके लिए स्वयं के हित और सुख का बलिदान कर देना राम के गुणों में सबसे बड़ा गुण माना जाता है और इस आदर्श ने करोड़ों भारतीयों को इस मर्यादा के पालन की प्ररेणा दी है।
रिपोर्टर