आजादी के वर्षों साल बाद बिहार के नेताओं को याद आ रही विकास की बात

संवाददाता श्याम सुंदर पाण्डेय की रिपोर्ट 

दुर्गावती (कैमूर)-- संवाददाता की कलम से---1947 से आजादी के बाद से आज तक  बिहार के नेताओं को बिहार के विकास की न चिंता रही न गरीबों के गरीबी की। गरीबों के नाम पर यदि डंका पीटने को सबसे ज्यादा तूल देने वाला राज्य रहा तो वह बिहार। आजादी के बाद से आज तक गरीबों का नारा लगा करके बिहार के नेता बिहार की गद्दी पर विराजमान रहें। बिहार में ऐसे भी नेता हुए जिसे लूटने का सर्टिफिकेट सुप्रीम कोर्ट ने धरा दिया है, लेकिन वह आज बिहार के सर्वमान्य नेता बने हुए हैं। आज तक बिहार में जो उद्योग लगे हुए थे, वह भी सुप्रीम कोर्ट से सर्टिफिकेट पाए हुए नेताजी ने बंद करा दिया। और उसे जमाने में पढ़े-लिखे युवा बगैर नौकरी अपनी उम्र गंवा बैठे। जब सुशासन बाबू की पहली बार सरकार बनी तो बिहार में उद्योग लगाने की पहल कुछ शुरू हुआ, कुछ उद्योग भी लगे लेकिन उनके द्वारा फिर उन उद्योगों को सुविधा से वंचित करने का परिणाम रहा, की कोई उद्योगपति बिहार में फिर उद्योग लगाने को तैयार नहीं हुए।उद्योग लगाने का जो विदेशी दौरा था वह सुशासन बाबू बंद कर आराम से कुर्सी पर बैठ गए और शासन करते रहे। जिन-जिन दलों की सरकारें बिहार में बनी वह केवल सत्ता सुख के बाद न उद्योग पर पहल किया न शिक्षा पर न तकनीकी यूनिवर्सिटी और न अनुसंधान केंद्र पर। जिसका परिणाम रहा कि बच्चों को राज्य से बाहर जाकर शिक्षा प्राप्त करना पड़ा। बिहार के गरीबों को गरीब प्रदेश बनाकर छोड़ दिया गया, उसके भाग्य भरोसे जिसकी पहचान  मजदूरों का प्रदेश बनकर दुनिया में जाना जाने लगा। अभी देश में जो भी कार्य हो रहा है केंद्र सरकार की योजनाओं के द्वारा, पर इसका श्रेय लेकर बिहार के राजनेता अपनी रोटी सेकने में भी पीछे नहीं है। भारत सरकार के द्वारा सवर्णों को मिले 10% आरक्षण में ओबीसी को लाकर के सवर्णों के साथ जो शिक्षक भर्ती में बेईमानी की गई वह किसी से छिपा नहीं है। आज चिंता हो रही है बिहार की और मांगा जा रहा है विशेष राज्य का दर्जा, कहां थे आप लोग जब शासन करने का आपको मौका दिया था। जातीय जनगणना बिहार के नेताओं के सर पर चढ़कर बोल रहा है। और एक नेता ने तो 75 परसेंट आरक्षण की वकालत भी कर दी लेकिन सवर्ण कोटे से जीते हुए उम्मीदवारों के मुंह से एक भी शब्द नहीं निकला। मैं पूछना चाहता हूं नेताओं से जब देश आजाद हुआ देश को चलाने के लिए सरकार के पास एक अधेला नहीं था तब देश के लिए किसने कुर्बानी दी, अपना कोष और अपनी जायदाद किसने देश के नाम पर समर्पित किया। यही नहीं भूदान यज्ञ में विनोबा भावे को किसने अपनी जमीन और जायदाद दान दी फिर भी जी नहीं भरा तो कांग्रेस की सरकार ने सीलिंग एक्ट लाकर किसकी संपत्ति छीनी। क्या यह भारत के नागरिक नहीं है, क्या इन्हें सत्ता में सहभागिता भागीदारी और आरक्षण नहीं चाहिए। जब जब देश रोया और कंगाल हुआ तब तब पूंजी पतियों की शरण में गया और पूंजी पतियों ने उसे उबारा लेकिन राजनेताओं ने उनकी उपेक्षा ही नहीं की बल्कि गाली देने का कोई मौका भी नहीं छोड़ा। जातीय नफरत तो ऐसा समाज  में बांटा की एक जाति दूसरे जाति को देखना पसंद नहीं करती है। क्या देश में एकता स्थापित करने का यही पैमाना है, या विकास करने का या भाईचारा पैदा करने का। इसी तरह का नेताओं के द्वारा भारत में  राजनीति होती रही तो आने वाले दिनों में भारत का भविष्य अपनी एक अलग कहानी पुनः दोहराएगा जिसे रोका नहीं जा सकता।

रिपोर्टर

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