आरक्षण की राजनीति पर कब तक चलेगा देश

दुर्गावती संवाददाता श्याम सुंदर पांडेय 


दुर्गावती । शिक्षा व्यवस्था को चुस्त दुरुस्त बनाने की जगह आरक्षण की राजनीति एक बार फिर हाबी होती देखी जा सकती हैं लगता है आरक्षण वोट पाने का एक तरीका बनते जा रहा है। बिहार की जाति जनगणना के आधार पर कब तक देश के और बिहार के विकास की गाथा लिखी जाएगी राजनेताओं के द्वारा आने वाला समय ही तय करेगा। समाज में बढ़ती दूरियां सामाजिक संरचनाओं और सामाजिक ताना-बाना को भारतीय राजनीतिक प्रणाली किस दिशा की तरफ लेकर जा रही है आने वाला इतिहास इसके लिए किसी जिम्मेदार ठहराएगा यह तो समय ही बताएगा। फिलहाल जिस तरह से देश के सामाजिक ताना-बाने को नष्ट किया गया और करने  मिटाने की तरफ जो राजनीति चल रही है देश में यह देश के लिए शुभ संकेत नहीं है।

एक तरफ देश में प्रतिभा खोज प्रतियोगिता चलाई जा रही है तो दूसरे तरफ प्रतिभाओं को दबाने के तौर तरीके खोजने का सिलसिला लगातार देश में आज भी जारी है। विश्व के तमाम देश प्रतिभाओं के बल पर अपने अपने देश में अपने-अपने स्तर से देश को प्रतिभाओं के बल पर एक नई शिखर पर ले जा रहे हैं तो दूसरी तरफ भारतीय राजनीति अपने समाज को कहां लेकर जा रही है यह एक गंभीर सवाल है। प्रतीभाओ को दबा कर बिहार में जातीय जनगणना के बाद जिस तरह से बिहार की राजनीति में बिहार सरकार एक बार फिर आरक्षण को 50 से 65% बढाकर एक नई वोट की प्रणाली पैदा करना चाहती थी जिसे हाई कोर्ट ने संविधान के दायरे में रहकर काम करने की हिदायत दे एक बार सरकार को चुनौती दे डाली। क्या राजनेताओं के द्वारा यह मन में पाल लिया गया है कि बिहार में और देश में जो प्रतिभाएं पैदा हो वह आरक्षण का शिकार बने या दूसरे देश की तरफ जाने के लिए रास्ते का तलाश करें।

यदि सरकार का सचमुच रवैया यही रहा तो प्रतिभाएं दूसरे देश की तरफ भागने के लिए तो रास्ता देखेगी ही क्योंकि इस देश में रहकर नरक भोगने से अच्छा है विदेश में जाकर दूसरे देश की सेवा कर दूसरे देश की तरक्की कर कम से कम सुकून मैं जिंदगी तो जिया जा सके। क्या आखिरकार दम घुट रहे प्रति भावानो के लिए इस रास्ते को तलाशने के लिए विवश नहीं कर रही भारतीय राजनीति। जिस तरह राजनीति में वंशवाद चल रहा है और अपराध बाद को जो गति मिल रही है यह कुर्सी की राजनीति उनके आद औलाद के लिए फायदेमंद होगी या हानिकारक या उनके बच्चे ही सदा इस देश पर राज करेंगे यह तो आने वाला समय ही फिर तय करेगा। देश में आग लगाना और आग से खेलना लगता है राजनेताओं की नियति बन गई है और कुर्सी पाने का तरीका। नागरिकता के मूल अधिकार में राजतंत्र की बू और झलक जो दिखाई देती है यह नागरिकों को रौदते हुए धृतराष्ट्र की तरह कुर्सी के मोह से जकड़ी हुई है इस तरह की राजनीति क्या लोकतंत्र के ढांचे को पूरी तरह ध्वस्त करके ही मानेगी। वर्तमान समय में इस पर कुछ कहा नहीं जा सकता क्योंकि कुर्सी की हवस कुछ भी करने के लिए विवस करती दिखाई दे रही हैं इस समय  भारतीय राजनेताओं को। पहले के नेताओ द्वारा देश को पहले माना जाता था लेकिन अब कुर्सी को पहले मानने की परंपरा देश में चल पड़ी है और यह देश प्रजातंत्र की जगह राजतंत्र के रास्ते पर चलता दिखाई दे रहा है।

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