
गुरु सत्ता को गहराई से समझने की है जरूरत की गुरु और सद्गुरु में क्या अन्तर है ?
- कुमार चन्द्र भुषण तिवारी, ब्यूरो चीफ कैमूर
- Apr 29, 2025
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संवाददाता श्याम सुन्दर पांडेय की रिपोर्ट
दुर्गावती (कैमूर)-- ज्ञान से मुक्ति होत है, बंध बिपर्यय होय। दुर्लभ पर यह ज्ञान है, सद्गुरु से मिल सोय। एक प्राकृतिक तत्वों का ज्ञान है, और दुसरा प़कृति से परे चेतन मण्डल का ज्ञान है। जिस ज्ञान से माया के बंधन से मुक्त होकर परम प्रभु से मिलन होता है, उस ज्ञान के प्रदाता को सदगुरु हैं। ब्रह्म प़कृति से परे की बस्तु हैं, तब ब्रह्म से मिलन भी प़कृति से परे बेहद में ही होगा। अतः हद में बैठा कोई जीव सद्गुरु नहीं हो सकते हैं। भवसागररुपी कुंए से बाहर निकालने वाला सदगुरु पहले से भवसागर से बाहर है।गुरु से पहले सद् (सत्य ) प्रत्यय लगने का अर्थ है कि सद्गुरु सत्ता तीनों काल में रहने वाली है। दूसरा- जो सत स्वरुप परम प्रभु से मिलन करा दे, वह सद्गुरु है। सदगुरु जीव कोटि की सभी आत्माओं से अलग है। कारण कि असीम सत्ता वाले प्रभु से मिलन ससीम सत्ता सम्पन्न जीव नहीं करा सकता है। असीम अनन्त सत्ता से मिलन कराने वाली सद्गुरु सत्ता भी असीम अनन्त है।दूसरा कारण यह है कि जीव परमात्मा की नाई अखण्ड मण्डलाकार नहीं हो सकता। अतः गुरु, सद्गुरु में जमीन आसमान का भी भेद है।गुरु सत्ता तो एक ऐसी सत्ता है जिसे बचपन से हम स्वीकार करते चले आ रहे हैं।इस जड़ अनात्म जगत में दृष्टिगत प्रत्येक बस्तु की जानकारी देने वाले को हम उन उन विषयों के गुरु मानते चले आ रहे हैं। अब आप खुदहि बिचार करें कि,जब लाख बस्तुओं के ज्ञान के लिए भी हमें गुरु की आवश्यकता हुई।तब इन्हीं लख बस्तुओं के अन्तरतर में गुप्त, जो परमात्म तत्व अलख है, कैसे सम्भव है कि बिना गुरु के हम लख सकते हैं? अर्थात् चाहे लख बस्तु हो, या अलख बस्तु हो। चाहे अपरा बिद्या का ज्ञान हो या पराबिद्या का ज्ञान हो। बिना गुरु के ज्ञान हो ही नहीं सकता। यथा-बिन गुरु होहीं की ज्ञान, ज्ञान की होहीं बिराग बिन।गावहिं वेद पुराण सुख की लहहीं, हरि भगति बिन।तात्पर्य यह निकला कि परमात्मा सत् है। अत: सतस्वरुप परमात्मा को लखाने वाला यानि अलख को लखाने वाला सदगुरु, और लख को लखाने वाले को गुरु कहते हैं।लख बस्तुयें तो अनन्त हैं। अत: गुरु अनन्त होते हैं। परन्तु अलख तो केवल एक परमात्म तत्व ही है।अत:पूरे बिश्व का एक ही सदगुरु हैं। संसार असत् है।अत:असत् का ज्ञान कराने वाले को गुरु, सत्स्वरुप परमात्मा का ज्ञान कराने वाले को सदगुरु कहते हैं। गुरु की खोज हम करते हैं। परन्तु बहुत पुण्य उदय होने पर, परम प्रभु की कृपा से सदगुरु मिलते हैं। यथा-पुण्यपुंज बिन मिलहिं न संता। सत्संगति संसृत दुख अंता। गुरु की पहचान आप प्राकृतिक इन्द़ियों के माध्यम से कर सकते हैं परन्तु सदगुरु का पहचान करना जीव के सामर्थ्य से परे है।सदगुरु स्वत: अपना पहचान जिसे कराना चाहता है, उसे ही कराता है।गुरु के भी गुरु होते हैं परन्तु सदगुरु के गुरु या सदगुरु नहीं होते हैं। क्योंकि ईश्वरीय ज्ञान धारा का नाम सदगुरु है। दूसरा सदगुरु जीव कोटी की संज्ञा से परे है। परन्तु जीव कोटी वाला भी सदगुरु है। वह कैसे?आप जरा खुदहि बिचार करें कि आप के गांव में किसी ओझा सोखा के उपर, देबी देवता काली जिस समय सवार हों। लोग उस समय उसे देबी देवता ही मानते हैं। ये हुआ बरदहस्त की बात,ये हुआ स्वाती की बात,ये हुआ दूत की बात। यथा- "उमा न कछु कपि के अधिकाई, प़भु प़ताप ते कालहिं खाई। सदगुरु परम प्रभु का दूत बनकर अमरलोक से आते हैं।सदगुरु किसे कहते हैैं? सूत़वत समझें। जिनकी आत्मा में ईश्वरीय ज्ञानधारा सतत प्रवाहित हो रही
है। और जो उस ज्ञान धारा को भक्तों के अन्दर प्रवाहित कर दे।उसे सदगुरु कहते हैं।
जो अज्ञान का नाश करके ज्ञान में ला दें, मायालोक छुड़ाकर, आत्मस्वरुप में स्थित कर दे, यानि निज घर चेतन लोक में पहुंचा दे।उसे सदगुरु कहते हैं।
जो सर्व प्रकार के बंधनों से मुक्त कर दे, संशय रहित कर दे, सत्पथ दर्शाकर,मकर डोरी पकड़ाकर, परम प़भु से योग करा दे, उन्हें सदगुरु कहते हैं।
जो मन प्राण एवं अष्ट चक़ों में बिखरी हुयी आत्म चेतना की,
अर्द्ध प्रवाही धार को, उर्ध्वमुख कर दे, उसे सदगुरु कहते हैं।
जो अन्तरदृष्टि प्रदान करके कुण्डलिनी को जागृत करते हुये, दशम द्वार खोलकर,सुष्मन प़वाह करा दे,उन्हें सदगुरु कहते हैं।
जो"अ"के भेद का,"नाम" के भेद का, सप्ताबरण के भेद का, द्वादश के भेद का, "२"अंगुल के भेद का, दशांगुल भेद का, शून्य के भेद का, सुमिरन के यथोचित भूमी के भेद का, भक्ति के भेद का ज्ञान करा दे,उन्हें सदगुरु कहते हैं।जो सम्पूर्ण सृष्टि के नियामक अक्षरब़ह्म का ज्ञान करा दे,पंच शून्य, ६८शून्य के भेद का ज्ञान करा दें, जो बाणी के स्वरुप का ज्ञान करा दे उन्हें सदगुरु कहते हैं। पंखबिहिन आत्माओं के ज्ञान बैराग रुपी पंख लगाने वाली सत्ता को यानि ज्ञान बैराग और भक्ति के प्रदाता को तथा चारों फलों के प्रदातृ को सदगुरु कहते हैं।जिन्हें नित्य अनादि सदगुरु ही प्रकट दर्शन देकर अपने पूर्ण ज्ञान से ओत प्रोत करके, सदगुरु पद प्रदान किये हैं,वही सदगुरु हैं, अन्य नहीं हैं।
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