उपनयन संस्कार कर बताया जाता है शिक्षा का मार्ग : आचार्य नन्दलाल शास्त्री

कैमूर-- जिला के भभुआं प्रखण्ड अंतर्गत कोहारी गांव में चल रहे संगीतमय श्रीमद् भागवत कथा के छठवें दिन आचार्य नन्दलाल शास्त्री के निर्देशानुसार तीन बालकों जिसमें दीपम मिश्रा, रौनक मिश्रा एवं सत्यम मिश्रा, का उपनयन संस्कार किया गया। आपको बताते चलें कि वही उपनयन संस्कार कर रहे आचार्य नन्दलाल जी शास्त्री ने बताया कि उपनयन संस्कार जिसमें जनेऊ पहना जाता है और वेद की विद्या आरंभ होती है। मुण्डन और पवित्र जल में स्नान भी इस संस्कार के अङ्ग होते हैं। सूत से बना वह पवित्र धागा जिसे यज्ञोपवीतधारी व्यक्ति बाएँ कंधे के ऊपर तथा दाईं भुजा के नीचे पहनता है। वही

यज्ञोपवीत एक विशिष्ट सूत्र को विशेष विधि से ग्रन्थित करके बनाया जाता है। इसमें सात ग्रन्थियाँ लगायी जाती हैं। ब्राह्मणों के यज्ञोपवीत में ब्रह्म ग्रंथि होती है। तीन सूत्रों वाले इस यज्ञोपवीत को गुरु दीक्षा के बाद हमेशा धारण किया जाता है। तीन सूत्र हिंदू त्रिमूर्ति ब्रह्मा, विष्णु और महेश के प्रतीक होते हैं। शास्त्री जी ने आगे बताया कि अपवित्र होने पर यज्ञोपवीत बदल लिया जाता है। बिना यज्ञोपवीत धारण किये अन्न जल ग्रहण नहीं किया जाता। जनेऊ का नाम सुनते ही सबसे पहले जो चीज़ मन में आती है, वो है धागा, दूसरी चीज है ब्राह्मण। जनेऊ का सम्बन्ध क्या सिर्फ ब्राह्मण से है, ये जनेऊ पहनते क्यों हैं, क्या इसका कोई लाभ है, जनेऊ क्या, क्यों, कैसे आज आपका परिचय इससे ही करवाते हैं।

जनेऊ को उपवीत, यज्ञसूत्र, व्रतबन्ध, बलबन्ध, मोनीबन्ध और ब्रह्मसूत्र के नाम से भी जाना जाता है

हिन्दू धर्म के 24 संस्कारों (आप सभी को 16 संस्कार पता होंगे लेकिन वो प्रधान संस्कार हैं, 8 उप संस्कार हैं, जिनके विषय मे आगे आपको जानकारी दूँगा) में से एक ‘उपनयन संस्कार’ के अंतर्गत ही जनेऊ पहनी जाती है, जिसे ‘यज्ञोपवीत धारण करने वाले व्यक्ति को सभी नियमों का पालन करना अनिवार्य होता है। उपनयन का शाब्दिक अर्थ है, "सन्निकट ले जाना" और उपनयन संस्कार का अर्थ है- "ब्रह्म (ईश्वर) और ज्ञान के पास ले जाना"


वही हिन्दू धर्म में प्रत्येक हिन्दू का कर्तव्य है जनेऊ पहनना और उसके नियमों का पालन करना। हर हिन्दू जनेऊ नहीं पहन सकता है। सिर्फ तीन वर्णों को ये अधिकार दिया गया। शुद्र वर्ण को जनेऊ पहनने और इस कारण शिक्षा का अधिकार नहीं दिया गया। जनेऊ धारण करने के बाद ही द्विज बालक को यज्ञ तथा स्वाध्याय करने का अधिकार प्राप्त होता है। द्विज का अर्थ होता है दूसरा जन्म। मतलब सीधा है जनेऊ संस्कार के बाद ही शिक्षा का अधिकार मिलता था और जो शिक्षा नही ग्रहण करता था उसे शूद्र की श्रेणी में रखा जाता था (वर्ण व्यवस्था)।

शास्त्री जी ने बताया कि जिस लड़की को आजीवन ब्रह्मचर्य का पालन करना हो, वह जनेऊ धारण कर सकती है। ब्रह्मचारी तीन और विवाहित छह धागों की जनेऊ पहनता है। यज्ञोपवीत के छह धागों में से तीन धागे स्वयं के और तीन धागे पत्नी के बतलाए गए हैं। जनेऊ में तीन-सूत्र: त्रिमूर्ति ब्रह्मा, विष्णु और महेश के प्रतीक – देवऋण, पितृऋण और ऋषिऋण के प्रतीक – सत्व, रज और तम के प्रतीक होते है। साथ ही ये तीन सूत्र गायत्री मंत्र के तीन चरणों के प्रतीक है तो तीन आश्रमों के प्रतीक भी। जनेऊ के एक-एक तार में तीन-तीन तार होते हैं। अत: कुल तारों की संख्‍या नौ होती है। इनमे एक मुख, दो नासिका, दो आंख, दो कान, मल और मूत्र के दो द्वारा मिलाकर कुल नौ होते हैं। इनका मतलब है – हम मुख से अच्छा बोले और खाएं, आंखों से अच्छा देंखे और कानों से अच्छा सुने। जनेऊ में पांच गांठ लगाई जाती है, इसे प्रवर कहते हैैं जो ब्रह्म, धर्म, अर्ध, काम और मोक्ष का प्रतीक है। ये पांच यज्ञों, पांच ज्ञानेद्रियों और पंच कर्मों के भी प्रतीक है। प्रवर की संख्या १, ३ और ५ होती है। जनेऊ संस्कार का महत्व:

यह अति आवश्यक है कि हर परिवार धार्मिक संस्कारों को महत्व देवें, घर में बड़े बुजर्गों का आदर व आज्ञा का पालन हो, अभिभावक  बच्चों  के प्रति अपने दायित्वों का निर्वाह समय पर करते रहे। धर्मानुसार आचरण करने से सदाचार, सद्‌बुद्धि, नीति-मर्यादा, सही – गलत का ज्ञान प्राप्त होता है और घर में सुख शांति कायम रहती है।

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