जीवन अबाध निरंतर -- डॉ एम डी सिंह

वह 
समय के रथ बैठ
हिलाता हाथ काल ग्वहर में समा
हो अदृश्य एक दिन निकल पड़ता है 
दिशा दृष्टि से मुक्त अनंत की ओर
पथिक 

दृष्टिवान मीजते आंख
चबाते शब्द मसोसते हृदय 
मसलते छाती बैठे रह जाते हैं 
किंकर्तव्यविमूढ़

होश आते ही पा मृत देह 
छोड़ गए सखा-संबंधी नामधारी 
राम नाम का सच गाते 
फूंक-ताप चिता पर
लौट आते हैं लोग
विदा प्रणाम
कह

मुड़ कर देखता भी नहीं कोई 
क्षितिज पार करते अकेले 
रहस्यमई राम का
लुप्त होता
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जीवन अबाध नारन्तर

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