‘बगावत’ तो सत्ता के शहंशाहों की पहली पसंद दशकों से चली आ रही है। जानिये राजनीति के मसहूर बगावते ....
- रामसमुझ यादव, ब्यूरो चीफ मुंबई
- Jun 26, 2022
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मुंबई।। महाराष्ट्र में छिड़े सियासी महाभारत ने बेशक शिवसेना की नींद उड़ा दी हो। भले ही कुछ लोग इसको भाजपा का करा-धरा मान रहे हों। कुछ लोग इसे शिवसेना के भीतर मची उठा-पटक का नतीजा बता रहे हैं। राजनीति में मगर इस तरह की बवाली ‘बगावत’ कोई नई बात नहीं है। सत्ता के गलियारों में ‘बगावत’ के सुर-ताल तो 1960 के दशक से ही मिलते-मिलाते चले आ रहे हैं। जिससे इंदिरा गांधी, जे जयललिता, अखिलेश यादव, पशुपति पारस, चंद्रबाबू नायडू सरीखे और नामी-गिरामी कद्दावर नेता भी खुद को महफूज नहीं रख सके। तो फिर ऐसे में सवाल पैदा होता है कि आज महाराष्ट्र की सरकार अगर उसी के बगावती विधायकों के चलते दांव पर लगी हुई है तो फिर इस पर इतना हंगामा या शोरगुल क्यों बरपा है? ‘बगावत’ तो सत्ता के शहंशाहों की पहली पसंद दशकों से चली आ रही है।
हिंदुस्तान की राजनीति में ‘बगावत’ के सुर-तालों से तो कद्दावर कांग्रेसी नेता और देश की दबंग प्रधानमंत्री में शुमार रहीं, इंदिरा गांधी भी खुद को दूर नहीं रख सकी थीं। 1960 के दशक (सन् 1967) के अंत की बात जाए तो 1967 में हुए लोकसभा-विधानसभा चुनावों में कांग्रेस के कई धुरंधर महारथी नेताओं को चुनाव में हार का मुंह देखना पड़ा था। फिर भी कांग्रेस जैसे-तैसे आम बहुमत के साथ सत्ता पर काबिज हो ही गई। सत्ता संभालते ही इंदिरा गांधी अपने करीबियों को संगठन में ऊंचे मलाईदार ओहदों घाघ-मंझे हुए कांग्रेसी नेता इंदिरा के उस एकतरफा रवैय्ये की खिलाफत में उतर आए। विरोधियों में शामिल थे नीलम संजीव रेड्डी, मोरारजी देसाई, अतुल्य घोष, उन दिनों पार्टी अध्यक्ष रहे एस. निजलिंगप्पा, पूर्व कांग्रेस अध्यक्ष के कामराज आदि।
राजनीति में सिर्फ मौका-परस्ती सर्वोपरि! और तो और पार्टी में मची आंतरिक कलह का चरम तब देखने को मिला जब एनटी रामाराव के दामाद एन चंद्रबाबू नायडु ही ससुर के खिला खड़े हो गए। विरोध करने वालों में दामाद की बात छोड़िए एनटी रामाराव के बेटे भी शामिल थे। लिहाजा एक दिन वो भी आ पहुंचा कि सितंबर सन् 1995 में एनटी रामाराव ने पार्टी में अपना वर्चस्व खो दिया और पार्टी के सर्वेसर्वा उनके दामाद चंद्रबाबू नायडु बन बैठे। बाद में पार्टी ने उन्हें राज्य का मुख्यमंत्री भी बना दिया। कालांतर में एक दिन वो भी आ पहुंचा जब धवस्त हुई पार्टी (पार्वती एनटीआर) कांग्रेस में शामिल (विलय) हो गई। यह सब सत्ता में बगावत की सच्ची कहानियां काफी पुरानी थीं।
भतीजा, चाचा के पापा, पुत्र के खिलाफ- तब राज्य के मुख्यमंत्री रहे अखिलेश यादव यानी भतीजे के खिलाफ चाचा शिवपाल यादव ने ही मोर्चा खोल कर सबको चौंका-बता दिया कि, सत्ता की हनक में कोई भी कभी भी कहीं भी बागी होकर बगावत कर सकता है। बागी होने या बगावत करने के लिए किसी काल-पात्र समय का ध्यान नहीं रखना होता है। समाजवादी पार्टी में बगावत उस हद तक जा पहुंची कि पार्टी के सर्वेसर्वा मुलायम सिंह यादव ने बेटे अखिलेश से अध्यक्षता छीनकर, छोटे भाई शिवपाल यादव को पार्टी का अध्यक्ष बना डाला। नतीजा यह रहा कि पिता और चाचा से खार खाए बैठे अखिलेश यादव ने चाचा को मंत्री पद से पैदल करके उन्हें अपनी सत्ता की ताकत कहिए या फिर हनक का अहसास करा दिया।
सबसे पहले चाचा लगाए ठिकाने- बात जब सत्ता में बगावत की हो तो फिर बिहार की राजनीति को भला भला क्यों और कौन भूल सकता है? यहां रामविलास पासवान जब बीमार हुए थे तो, उनके बेटे चिराग पासवान ने पार्टी की कमान अपने हाथ में ले ली थी। तब तक राम विलास पासवान के भाई पशुपति पारस पार्टी के प्रदेशाध्यक्ष थे। चिराग ने पार्टी की बागडोर संभालते ही सबसे पहले चाचा को पार्टी से निपटाया। उन्होंने पशुपति पारस को पार्टी के प्रदेशाध्यक्ष की कुर्सी से पहले नीचे उतारा। राम विलास पासवान की मृत्यु के बाद जो तमाशा इस परिवार में हुआ। वो सबने देखा सुना।
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