गर्मी की छुट्टी कुछ केन्द्रीय हिन्दी निदेशालय द्वारा पुद्दूचेरी में आयोजित हिंदीतरभाषी नवलेखक शिविर में विषय विशेषज्ञ के रूप में देश के विविध क्षेत्रों से आये हुए नवलेखकों के साथ व्यतीत हुई और कुछ गाँव में माता-पिता, भाई- बहनों एवं मित्रों के साथ | लगभग एक महीने बाद
- अरविंद मिश्रा 'पिंटू'
- Jun 07, 2018
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गर्मी की छुट्टी कुछ केन्द्रीय हिन्दी निदेशालय द्वारा पुद्दूचेरी में आयोजित हिंदीतरभाषी नवलेखक शिविर में विषय विशेषज्ञ के रूप में देश के विविध क्षेत्रों से आये हुए नवलेखकों के साथ व्यतीत हुई और कुछ गाँव में माता-पिता, भाई- बहनों एवं मित्रों के साथ | लगभग एक महीने बाद
मुंबई वापसी पर दो पत्रिकाएं मिलीं जिनमे अनुसंधान में प्रतीप सौरभ के प्रसिद्ध उपन्यास \\\'तीसरी ताली\\\' और \\\'पश्चिम समन्वय\\\' में दामोदर खडसे जी के उपन्यास \\\'बादल राग\\\' पर लिखित मेरे विचार छपे हुए हैं | मैं पुद्दुचेरी से सम्बंधित कुछ यादें साझा करने के पूर्व अनुसंधान का आलेख आप सबसे साझा करना चाहता हूँ |
थर्ड जेंडर की मार्मिक गाथा : तीसरी ताली
श्यामसुंदर पाण्डेय
\\\'अब मैं थोड़े दिन हिजड़ी की तरह बिकूँगी | मैं कैसी हूँ ? क्यों हूँ ? कितनी पीड़ा सहती हूँ ? इन सवालों से किसी को सरोकार नहीं है | किसी को इस बात से कोई सरोकार नहीं है कि मेरे जन्म के बाद मेरी माँ ने मुझे देखकर आत्महत्या कर ली | बाद में बड़ी बहन सिर्फ इस बात के लिए ससुराल से निकाल दी गई कि उसकी बहन हिजड़ी है | मेरे पिता किस तरह तिल-तिल कर मरे, इस बात से किसी को कोई लेना-देना नहीं है | मीडिया को तो बेचने से मतलब है | चाहे वह औरत हो या हिजड़ी | जब तक बिकूँगी तब तक आप बेचेंगे | "ह्रदय को तीर की तरह बेधने वाले और समाज के कई पक्षों पर एक साथ प्रश्नों की बौछार करने वाले ये वाक्य किसी फ़िल्मी हीरो के संवाद नहीं बल्कि पत्रकारिता जगत के एक चर्चित नाम और \\\'मुन्नी मोबाइल\\\' के माध्यम से हिन्दी उपन्यास के क्षेत्र में अपनी जोरदार उपस्थिति दर्ज कराने वाले प्रदीप सौरभ की कलम से निकले वाक्य हैं | ये बातें उस वर्ग की आंतरिक पीड़ा को व्यक्त करती हैं जो वर्ग कहने के लिए तो दो हाथ और दो पैरों वाला मानव ही है लेकिन मात्र एक आंगिक अभाव के कारण आजीवन तिरस्कार झेलता है और मरने के बाद भी जिसके शव को अपने संगी - साथियों द्वारा ही जूते मारे जाते हैं ताकि वह पुनः उस योनि में जन्म न ले | आखिर, जो योनि निर्धारण पूर्णतः प्रकृति के हाथ में है, जिसमें हमारा कोई हाथ नहीं उस आंगिक कमी के कारण सब कुछ व्यर्थ क्यों मान लिया जाता है ? आखिर, वे माता-पिता जिसे अन्य बच्चों की तरह ही उसे भी जन्म देते हैं, वे अपने ही नवजात शिशु में केवल एक अंग को न देखते ही इतना पत्थर दिल कैसे बन जाते हैं कि उसे अपना दुर्भाग्य और कलंक मान कर कूड़े पर फेंक देते हैं या किसी अनजान को सौंप देते हैं ? आखिर, समाज हर व्यक्ति को निर्वस्त्र करके सबके हर अंगों के स्वस्थ होने की तलाश तो नहीं करता ? फिर भी उस वर्ग का नाम सुनते ही हमारी नज़रें क्यों बदल जाती हैं ? प्रदीप सौरभ का \\\'तीसरी ताली\\\' उपन्यास इस प्रकार के तमाम प्रश्नों के साथ चलता है और उभयलिंगी समाज के उन तमाम रहस्यों का उदघाटन करता है जो आज तक सामान्य लोगों के लिए रहस्य ही बने हुए थे | \\\'यह उभयलिंगी सामाजिक दुनिया के बीच और बरक्स हिजड़ों, लौंडों, लौंडेबाजों, १
लेस्बियनों, और विकृत प्रकृति की ऐसी दुनिया है जो हर शहर में मौजूद है और समाज के हाशिये पर जिन्दगी जीती रहती है | अलीगढ़ से लेकर आरा, बलिया, छपरा, देवरिया यानी ए बी सी डी तक, दिल्ली से लेकर पूरे भारत में फ़ैली यह दुनिया समानांतर जीवन जीती है | प्रदीप सौरभ ने इस दुनिया के तहखाने में झाँका है, जिसका अस्तित्त्व सब मानते तो हैं लेकिन जानते नहीं |\\\' प्रदीप सौरभ का इस दुनिया में यह झाँकना सिर्फ झाँकना मात्र नहीं है बल्कि, लेखक द्वारा उस दुनिया की आंतरिक पीड़ा का कदम -कदम पर अपने अपमान से उनके हृदय में चुभते शूलों का और मानवीय रिश्तों के प्रति उनकी तड़प का ऐसा विश्लेषण इस उपन्यास में किया गया है जैसे किसी गाड़ी का कारीगर उसके एक -एक अंग को अलगा देता है और मालिक उन अंगों को देखते ही कह देता है कि यही है वह पक्ष जो घिस गया है, गल गया है या टूट गया है | इस उपन्यास को पढ़ते समय कई बार ऐसे दृश्य उपस्थित होते हैं जब पाठक की आँखें नम हो उठती हैं | उपन्यास की कथा गुजरती तो है उभयलिंगियों की गलियों से लेकिन लेकिन आस-पास की उन सभी विकृतियों को भी आलोकित करते चलती है जिन्हें आज का सफेदपोश वर्ग अपनी स्वतंत्रता मान रहा है या जिनकी तपिश सम्पूर्ण समाज को भयभीत बनाये हुई है | यहाँ समाज की गलियों में अन्धकार उगलने वाले श्रोतों का भी पर्दाफ़ाश होता है और धन के लिए सबकुछ को त्याग देने वाले लोभियों को भी बेपर्द किया गया है |
\\\'तीसरी ताली\\\' उपन्यास की कथावस्तु बिहार के पश्चिमी जिलों आरा, बलिया, छपरा और देवरिया से लेकर दिल्ली की बड़ी सोसायटियों तक, तमिलनाडु के बिल्लूपुरम, मुम्बई के कमाठीपुरा से लेकर अलीगढ़, कानपुर ,भोपाल और जयपुर तक फ़ैली हुई हैं | दिल्ली स्थित देश की सबसे बड़ी सोसायटी सिद्धार्थ एन्क्लेव से इस उपन्यास की कथा प्रारंभ होती है, जहाँ हिजड़ों को देखते ही \\\' ये मुए सुबह-सुबह कॉलोनी में कैसे घुस आये\\\' जैसी प्रतिक्रियायें होने लगती हैं | इसी कॉलोनी के गौतम साहब जब हिजड़ों को नेग नहीं देते तो लोग उनकी बुराइयाँ भी करने लगते हैं | तरह - तरह के लोग तरह-तरह की बातें | लेकिन उन्हीं के बीच आनंदी आंटी की आँखें गौतम साहब में आये परिवर्तनों पर टिकी हुई हैं | और , गौतम साहब की दशा यह है कि कभी मोजा पहनना भूल जाते तो कभी उनकी कमीज पीछे से निकली २
होती या फिर आगे से | ऐसा लगता था जैसे उन पर कोई पहाड़ गिर गया हो |\\\' कारण वह किसी को बता नहीं सकते | लेकिन यह व्यथा भी वही थी जो न तो कहते बन रही थी और न ही सहते बन रही थी | आनंदी आंटी को अपनी संतान निकिता के सम्बन्ध में भी तो यही करना पड़ा था | उन्होंने बेटी को पढाने - लिखाने से लेकर उसे एक अच्छा इन्सान बनाने के लिए क्या नहीं किया था | शायद एक माँ अपने बच्चे के लिए जो कर सकती थी वह सब कुछ | लेकिन, हुआ वही जो अब तक समाज में होता रहा है | उसे छठवीं कक्षा में दाखिला इसलिए नहीं मिला कि उसका लिंग स्पष्ट नहीं था | चाहते हुए भी हार कर निकिता को आनंदी आंटी ने नीलम नाम के हिजड़े को सौंप दिया था | निकिता दहाड़ मारकर रोई थी पर --- ?
गौतम साहब ने भी तो विनीत को सारा सुख प्रदान किया | सामजिक मान - सम्मान को आहत होते देख उन्होंने अपना घर बदल दिया लेकिन विनीत कहीं न कहीं समाज की उन नज़रों से हर दिन घायल हो रहा था जिसे वह किसी से कह नहीं सकता था | और, एक दिन घर से निकल कर विनीत से विनीता बन गया | उपन्यास की एक अन्य पात्र मंजू के माता पिता भी गरीबी के कारण उसे डिम्पल जैसे हिजड़े को बेच दिए | डिम्पल उसे पढाना- लिखाना और उसकी शादी करना चाहती थी लेकिन समाज के प्रश्नों का सामना करने का साहस उसे न हो सका और अपने धर्म के विरुद्ध जाकर उसने मंजू को हिजड़ा बना दिया | ठीक इसी प्रकार गरीबी से जूझता शरोपा हिजड़ा मंडली में आश्रय पाता है | अपनी गरीबी के कारण दलित लड़का ज्योति श्यामसुंदर बाबू का लौंडा बनता है लेकिन एक दूसरे व्यक्ति द्वारा जबरदस्ती चूम लिए जाने पर उसे जूठा कहकर उनके द्वारा छोड़े जाने के बाद वह कहीं का नहीं रह जाता तो हिजड़ा बनाने के लिए दिल्ली चला जाता है | वहाँ जब हिजड़े की टोली उसे मर्द कह कर अपनी मंडली में शामिल नहीं करती है तो सामजिक आडम्बरों के विरुद्ध उसके क्रोध की ज्वाला फूट पड़ती है | उस समय वह हिजड़ा बनने के लिए तैयार होते हुए कहता है -\\\'तो बना दो हिजड़ा | - - - बिना हिजड़ा के भी तो हिजड़ा बना हुआ हूँ | जो अपने को मर्द कहते हैं, वे कौन से हिजड़ों से कम हैं ! गरीब का बेटा हूँ, तो पूरे गाँव की भौजाई बन गया हूँ | - - तो मैं क्या करूँ ! अपने बूढ़े माँ - बाप के साथ गंगा मइया की गोद में समा जाऊँ ? सीता मइया की तरह धरती भी हमारे जैसे गरीबों के लिए नहीं फटती, वरना उसी में समा जाते |\\\' कुछ - कुछ यही स्थिति बनारस में मणिकर्णिका घाट के पास ३
भटकती विधवाओं की भी है जिनके लिए \\\'मरने से पहले भूख एक बड़ी सच्चाई है | शायद मौत से भी बड़ी सच्चाई |\\\' इस प्रकार अप्राकृतिक यौन विकृतियों और इस थर्ड जेंडर की त्रासदी के पीछे छिपे यथार्थ को प्रदीप सौरभ ने इस उपन्यास में बड़े ही रहस्यात्मक और शोधपरक ढंग से चित्रित किया है | लेखक यहाँ सिद्ध करता है कि इनके लिए आंगिक कमीं की पीड़ा से अधिक पीड़ादायक होती हैं समाज की वह नज़रें जो घर से निकलते ही बेधने लगती हैं | साथ ही पेट की आग भी लोगों को इस अग्निकुंड में ढकेलने में विशेष भूमिका निभाती है | अपनी क्षुधा की पूर्ति के लिए दिल्ली, मुंबई, बनारस जैसे महानगरो में अथवा ए.बी.सी.डी जैसी सामान्य जगहों में भी निकिता, विनीता या शरोपा और ज्योति जैसी लाखों मानव प्रतिमायें तड़प-तड़प कर जी रही हैं | इस उपन्यास के माध्यम से लेखक देश के तथाकथित सभ्य समाज के समक्ष यह प्रश्न खड़ा करता है कि जिस आंगिक कमी में हम किसी की मदद नहीं कर सकते उसमें उनका मजाक उड़ाने अथवा उन्हें रहस्यात्मक नज़रों से देखने का अधिकार हमें किसने दे दिया है ? श्रीमती गौतम के गर्भ के ग्यारहवें सप्ताह में जब सेक्सुअल ऑर्गन को विकसित करने वाले हारमोन अपनी भूमिका पूरी नहीं कर पाए और डॉक्टरों ने भी जब हाथ खड़े कर दिए तो हम उन पर अंगुलियाँ उठाने वाले कौन होते हैं ? इसे इक्कीसवीं सदी की विडम्बना कहें या दुर्दैव कि निकिता के दाखिले के लिए आनंदी आंटी को दिल्ली जैसे महानगर में स्कूल - स्कूल भटकना पड़ता है और लाख कोशिशों के बाद भी असफल हो जाने पर उसे एक हिजड़े को सौंपकर अपना घर बदलना पड़ता है | एक प्रश्न यहाँ पुनः उठता है कि जो लिंग निर्धारण पूर्णतः प्रकृति के ऊपर निर्भर है, जिसमें माता-पिता से लेकर डॉक्टर तक लाचार बन जाते हैं, उसी कमी की इतनी भयानक सजा यह समाज क्यों निर्धारित करता है ?
इस थर्ड जेंडर की समस्यायों के साथ ही साथ लेखक द्वारा छोटे बड़े सभी चुनावों में शराब और शवाब के बीच बढ़ती गुंडागर्दी और युवा पीढी को पेपर लीक कराने, नौकरी दिलवाने जैसे आश्वासन देकर भ्रमित करने वाले लोगों की तरफ भी संकेत किया गया है | इतना ही नहीं इस उपन्यास में अन्य अप्राकृतिक लैंगिक संबंधों को भी चित्रित किया गया है | यास्मिन और जुलेखा के संबंधों को न्यायालयीन मान्यता दिलवाकर और विमल भाई तथा अनिल के संबंधो का समर्थन करके लेखक ने लेस्बियन तथा गे जैसे संबंधों को जायज ठहराया है | संभवतः यहाँ लेखक यह संकेत करता है कि कानूनी रूप से लैंगिक सम्बन्ध पूर्णतः व्यक्तिगत होते हैं | व्यक्ति अथवा समाज किसी को भी इसमें दखल देने की कोई आवश्यकत नहीं | लेकिन, ऐसे संबंधो के बल पर किस प्रकार के समाज का निर्माण हम कर सकते हैं ? ऐसे मामलों में धार्मिक संस्थाओं और धर्म गुरुओं की दिखावटी चिंताओं पर भी व्यंग्य किया गया ४
है | पात्रों के सम्बन्ध में इस उपन्यास की सबसे महत्त्वपूर्ण बात है कि इसके अधिकांश पात्र उन वर्गों से आते हैं जिनका उपभोग तो सफेदपोश वर्ग करता है लेकिन समाज उन्हें घृणा की नजर से देखता है | लेखक द्वारा इस उपन्यास में किन्नर वर्ग को कथा का केंद्र बनाया गया है लेकिन, उनकी रस्यात्मक त्रासदी के साथ - साथ राजनीतिक छल-प्रपंच, महानगरों में तेजी से फैल रहे राष्ट्रीय-अंतर्राष्ट्रीय सेक्स रैकेट्स और इन अवैध कार्यों के लिए पुलिस की सहमति आदि पक्षों की अनेकानेक घटनाएँ उसमें जुडती चलती हैं | एक हिजड़ा शबनम का विधायक बनना, शोभा जिसके माता - पिता नें जन्म के साथ ही अविकसित लिंग देखकर कूदेदान में फेंक दिया था, उसका पार्षद बनना आदि सभी घटनाएं जो इक्का-दुक्का देश में हो रही हैं, ये सभी किन्नर वर्ग के समाज की मुख्य धारा से जुड़ने की संकेतक हैं | लेखक इस वर्ग की जागरूकता पर संकेत करते हुए इनके अधिकारों का समर्थन करता है और इनके प्रति सामाजिक दृष्टिकोण में बदलाव की वकालत करता है | पूर्व विधायक शबनम मौसी हिजड़ों की सभा को संबोधित करते हुए कहती है -\\\'बस मैं इतना चाहती हूँ कि लोग हिजड़ों के साथ सम्मानजनक व्यवहार करें | - - हमें लोगों के बीच जाकर बताना होगा कि हम असली हिजड़े नहीं हैं | असली हिजड़े तो वे हैं जो जो जनता के वोटों से संसद और विधान सभाओं में जाकर उन्हीं का खून चूसने की योजनायें बनाते हैं और पेट भरते हैं |\\\' इस वर्ग के मन का यह आक्रोश सम्पूर्ण समाज का आक्रोश है |
लेखक ने बड़ी बारीकी से इस बात की तरफ भी संकेत किया है कि समाज के अन्य वर्गों की तरह किन्नरों का समाज भी आर्थिक स्तर पर कई वर्गों में बंटा हुआ है | एक तरफ पेट भरने की ज़द्दोजहद है तो, दूसरी तरफ महानगरों की चमक-धमक के बीच आकर्षित करती हाई-फ़ॉई जिन्दगी | उपन्यास के उत्तरार्ध में कथा पेज थ्री की तरफ मुड़ती है जहाँ, लगता है कि विनीता का गे पार्लर, रेखा चितकबरी का अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर फैला देह व्यापार, विजय की फोटोग्राफी आदि उनके भौतिक संसाधनों ने इनकी जिन्दगी को बहुत सुकून दिया है लेकिन उस चमक के पीछे की सच्चाई तो यही है कि समाज की नज़रें इन्हें इतनी गहराई तक भेदती हैं कि उसका सामना किसी भी स्थिति में करना मुश्किल होता है | यद्यपि कि प्रदीप सौरभ बार- बार इस वर्ग को आत्मसम्मान के साथ जीने की राह दिखाते हैं और \\\'रियलटी शो द छक्का\\\' में राजू के माध्यम से सन्देश देते हैं कि \\\'उठो और समाज में अपना मुकाम बनाओ | अपना हक हासिल करो | हक भीख में नहीं मिलता | उसके लिए संघर्ष करना पड़ता है |\\\' लेकिन, ये सभी बातें इनके प्रति सामजिक दृष्टिकोण को बदलने में अक्षम साबित हो रही हैं | यह उपन्यास हिजड़ों की गुरु परंपरा, उनकी आपसी खींचतान, पूरे देश में फैला उनका नेटवर्क और बेरोजगारी की मार सहते गरीब युवकों का इस धंधे की तरफ आकर्षित होना आदि का यथार्थ दस्तावेज़ है | जिस समाज में नारी और पुरुष मानव के केवल दो ही रूप ५
स्वीकृत हैं वहाँ तीसरा वर्ग तालियाँ पीटकर पेट अवश्य भर ले समाज उन्हें उचित सम्मान नहीं दे सकता | जबकि इनकी प्यास सिर्फ और सिर्फ मानवीय संबंधों की होती है | मात्र एक आंगिक कमी इनके और सामान्य समाज के बीच इतनी गहरी खाई उत्पन्न कर देती है जिसे पाटना अकाल्पनिक और असंभव ही कहा जा सकता है | यदि इनके साथ नजदीकी बनाने की कोई सोचता है तो उसकी तरफ कदम बढाते ही इस आडम्बरी समाज का भयंकर दानव अपने तेज नखों और दांतों से उसे घायल कर देता है | इस उपन्यास का एक पात्र दूध बेचने वाला किशन फरीदाबाद की गद्दी की मालकिन बॉबी से विवाह करता है और गाँव वालों के विरोध करने पर कहता है कि \\\' हिजड़े कोई हिंसक जानवर नहीं , जो गाँव में रहेंगे तो लोगों को मारकर खा जाएंगे | उन्हें भी भगवान ने ही बनाया है | तुम लोगों की तरह वे हुक्का गुडगुडाते और ताश पीटते नहीं बैठते | - - नाच गाकर कमाते हैं | दूसरों के लिए दुआएँ माँगते हैं |\\\' लेकिन किशन की इस मानवतावादी आवाज़ को यहाँ कितना सुना जाता है इसका जीवंत प्रमाण यही है कि किशन को गाँव के तुगलकी फरमान का शिकार बनना पड़ता है और किशन तथा बॉबी दोनों को आग के हवाले कर दिया जाता है |
वास्तव में इस उपन्यास के माध्यम से प्रदीप सौरभ ने समाज की उस दुखती राग पर हाथ रखने का काम किया है जिसे छूने का साहस बहुत कम साहित्यकार करते हैं | इस उपन्यास में कहीं - कहीं यौनिक अश्लीलता और विभत्सता अवश्य दिखाई देती है लेकिन यह अश्लीलता किसी अंग विशेष का प्रदर्शन नहीं बल्कि समाज के उस घाव को खोल कर दिखाना है जिसे सदियों से ढँक कर रखा गया था | यह उस मानवीय संवेदना का प्रश्न है जिसमें कोई रिश्ता काम नहीं आता और अपने ही जिगर के टुकड़े को आजीवन तड़पने के लिए छोड़ दिया जाता है | सजा भी उसे मिलती है जिसने कोई अपराध नहीं किया | उपन्यास के सभी पात्र देश के विभिन्न क्षेत्रों से, विभिन्न परिस्थितियों से आते हैं लेकिन समस्या सबके साथ एक ही है कि समाज जिस कमी की सजा उन्हें दे रहा है आखिर, उसमें उनका क्या हाथ है ? \\\'यह उपन्यास लेखक की जबरदस्त पर्यवेक्षण क्षमता का सबूत है | यहाँ वर्जित समाज की फुर्तीली कहानी है, जिसमें इस दुनिया का शब्दकोष जीवित हो उठा है | लेखक की गहरी हमदर्दी इस जिन्दगी के अयाचित दुखों और अकेलेपन की तरफ है | इस उपन्यास को पढ़कर ही समझा जा सकता है कि इस दुनिया को बाकी समाज जिस निर्मम क्रूरता से डील करता है वही क्रूरता इनमे हर स्तर पर इन्वर्ट होती रहती है | उनकी जिन्दगी का हर पाठ आत्मदंड, आत्मक्रूरता, चिर यातना का पाठ है |\\\' यह उपन्यास थर्ड जेंडर की रहस्यात्मक दुनिया के साथ - साथ उन सरकारी अभियानों की पोल भी खोलता है जो सरकार के दस्तावेजों तक सीमित रह जाते हैं अथवा पुलिस या अन्य अधिकारियों को रिश्वत लेकर अवैध को वैध बनाने की अनुमति प्रदान करने का अधिकार दे देते हैं | यहाँ एक तरफ आनंदी आंटी जैसी ६
महिलायें और मि. गौतम जैसे पुरुष हैं जिनकी उफनती ममता भी सामाजिक आक्षेपों के समक्ष घुटने टेक देती है तो कामुकता के शिकार वे लोग भी हैं जिनके लिए शरीर सिर्फ शरीर है, संवेदना का जहाँ नामोनिशान नहीं है | इन सबके बीच मानवीय संबंधों के अभाव का अनुभव करता वह वर्ग है जिसके लिए सुख के साधनों की आवश्यकता नहीं बल्कि मानव समाज में बराबरी के सम्मान की ललक है | यहाँ लेखक ने अप्राकृतिक हिजड़ों की बढ़ती संख्या पर चिंता व्यक्त की है | यदि मात्र गरीबी ही इसका कारण है तो सभ्य समाज का यह उत्तरदायित्व बनाता है कि ऐसी समस्याओं पर विचार करे | उपन्यास की भाषा पूर्णतः पात्रानुकूल और परिस्थितिजन्य है | इसलिए भावग्रहण में कहीं कोई बाधा नहीं आती | पात्रों के संवाद में यदि कहीं अभद्रता दिखती भी है तो वह उस पात्र के वर्ग से सम्बद्ध है यदि लेखक उन्हें अभद्र मानकर छोड़ देता तो शायद उस वर्ग के यथार्थ की अभिव्यक्ति नहीं हो पाती |
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डॉ.श्यामसुंदर पाण्डेय
हिन्दी विभाग,
बिड़ला महाविद्यालय, कल्याण
थाने (महाराष्ट्र)
मोब. ९८२०११४५७१
ई मेल : ssdpaandey1@gmaail.com
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