भिवंडी में उत्तर भारतीय मजदूरों की नीलामी ?

चुनावी बाजार में 'वोट' बने सौदे का सामान


भिवंडी।  भिवंडी की गलियों में एक खतरनाक खेल खेला जा रहा है। यहां की पूर्व और पश्चिम विधानसभा सीटों पर बसे उत्तर भारतीय मजदूरों की बस्तियां, जो चुनावों में निर्णायक भूमिका निभाती है। इस बार फिर तथाकथित नेताओं के लिए "वोट बेचने का बाजार" बन चुकी है। इन मेहनतकश मजदूरों की हकीकत यही है कि जो चुनावी पोस्टरों, रैलियों और झंडों में सबसे आगे दिखते है।असल में उनकी जिंदगी का नियंत्रण इन वोटों के सौदागरों के हाथ में है।

हर चुनाव में ये तथाकथित नेता अचानक सामाजिक कार्यकर्ता बनकर "एक्शन मोड" में आ जाते है। लेकिन उनके सामाजिक कामों की आड़ में असली एजेंडा कुछ और होता है - उत्तर भारतीय मजदूरों के वोटों का सौदा। अपनी बस्तियों में, अपनी मेहनत के साथ जुड़े ये लोग केवल वोट के पैकेज में बंधकर राजनीतिक दलों के बीच नीलाम किए जा रहे है। वोटों की मंडी सजाने वाले इन नेताओं का असल मकसद अपने स्वार्थों की पूर्ति है, न कि मजदूरों का कल्याण।

ये नेता मजदूरों की कमजोरियों का फायदा उठाकर उन्हें केवल एक "वोट बैंक" तक सीमित कर देते है। चुनावी रैलियों में इनकी पीठ पर लदे झंडे और बैनर, उनकी जिंदगी में बदलाव की उम्मीद नहीं, बल्कि राजनीतिक दलों के लिए महज एक विज्ञापन बन जाते है। उनकी आवाज, जो उनके हक की बात होनी चाहिए थी, इन झूठे वादों और सौदों में खो जाती है।

खतरनाक यह है कि अलग-अलग राजनीतिक खेमों में सक्रिय ये नेता खुद को उत्तर भारतीय समुदाय का रक्षक बताकर कई बार एक ही समय पर कई दलों के साथ सौदा करते है। उनकी नजरों में ये मजदूर बस वोट देने वाली मशीनें है और चुनाव के बाद इनकी समस्याओं, रोजगार, स्वास्थ्य, और शिक्षा की दुर्दशा किसी को याद भी नहीं रहती।

भिवंडी में उत्तर भारतीय मतदाताओं का यह शोषण न सिर्फ उनके अधिकारों का हनन है, बल्कि लोकतंत्र की आत्मा को भी चोट पहुंचाता है। ये "तथाकथित" नेता जो असल में दलाल की भूमिका निभा रहे है। इन्हें समय रहते पहचानने और इनसे सवाल पूछने का वक्त आ गया है। यह वोट बेचने का खेल जितना खतरनाक है, उतना ही दुर्भाग्यपूर्ण भी, और अगर यह सिलसिला यूं ही चलता रहा तो उत्तर भारतीय समुदाय केवल चुनावी खेल का मोहरा बनकर रह जाएगा।

रिपोर्टर

संबंधित पोस्ट