
फगुआ में मारे रंगों का फुहार कबीरा सा..रा..रा.रा..रा
- सुनील कुमार, जिला ब्यूरो चीफ रोहतास
- Mar 12, 2025
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रोहतास ।अंग्रेजी महीने से इतर भारतीय जनमानस में विशेष कर हिन्दी हृदय क्षेत्र में प्रचलित फाल्गुन मास को हिन्दी पंचांग का आखिरी महीना माना जाता है। इस संबंध में काशी काव्य संगम रोहतास जिले के जिला संयोजक कवि सह साहित्यकार सुनील कुमार रोहतास ने किशुनपुरा गांव से होली के मिजाज को देखते हुए बताते हैं कि अलबेला, अल्हड़ , मनभावन और जन-जन के मन मस्तिष्क और हृदय को मदमस्त तथा बसंती बयार से रोम-रोम रोमांचित कर देने वाला फागुन का महीना हर बार नयी उमंग, नयी तरंग नयी आशा, नया विश्वास और नयी उम्मीद लेकर आता है। धरती से अम्बर तक नूतन परिवेश निर्मित करने का हुनर और हौसला लिए फगुआ का महीना बेहतर सामाजिक जन-जीवन के लिए प्यार-मुहब्बत की आगोश में लिपटे बेहतर संदेश लेकर आता है। फाल्गुन का महीना अपनी आदत, फितरत और हरकतों के अनुरूप बाग-बगीचे में अमराई, लोकजीवन में अंगड़ाई, तन बदन को गुदगुदाने वाली हवा-बयार में फगुनाहट और घर-आंगन में अपनों के आने की आहट के साथ रसभरी शरारत, अल्हड़पन के साथ अपनापन और प्यासे बिछड़े दिलो में मिलन की आस लेकर आता है। बहुरंगी आनंद से पूरी तरह सराबोर इस नवरंगी मौसम वाले बसंत को ऋतुराज कहा जाता हैं। श्रीकृष्ण ने कुरूक्षेत्र में खड़े होकर उद्घोष किया था कि- मैं ऋतुओं में बसंत हूँ'।
साहित्यकारो ने भी सबसे अधिक रचनाए वसंत ऋतु को समर्पित की है। समृद्ध भारतीय साहित्य परम्परा में भारत की लगभग समस्त भाषाओं में अनगिनत साहित्य सरिताएं मनोहारी वसंत ऋतु की गंगोत्री से निकल कर भारतीय लोकमानस को अभिसिंचित कर रही हैं। साहित्य रस के प्यासे हृदयो को वसंत ऋतु से प्रवाहित सरिताएं सदियों से तृप्त कर रही है। प्राचीन भारतीय इतिहास में छक कर लगभग एक माह तक वसंतोत्सव मनाने का उल्लेख मिलता है।
ॠतुराज बसंत के शुभागमन से ही बसुन्धरा का प्राकृतिक श्रृंगार और सौन्दर्य अपनी पराकाष्ठा पर होता हैं । सम्पूर्ण लोक-जीवन बसंत की मादक बयारों के मधुर स्पर्श से गहरे रूप से स्पनंदित होने लगता है। प्रकृति के अद्भुत श्रृंगार और सतरंगी सौन्दर्य में हर चंचल मन रंगने लगता है। सृष्टि और प्रकृति का स्वर, व्यंजन और व्याकरण पूरी तरह नवलता के कलेवर में ढल जाता हैं। बाग-बगीचे , खेत खलिहानों में चहकते पक्षियों,और महकते फूलो से मधुर संगीत झंकरित होने लगता है। पेड़ पौधों की लचकती, बहकती और झूलतीं डालियों में मन मस्तिष्क को उमंगित करने वाला नृत्य प्रस्फुटित होने लगता हैं। बच्चे, बुढे, जवान, अनपढ़ ,गंवार बुद्धिमान शहरी देहाती और लगभग हर नर-नारी अपना शराफती चोला ताखा पटनी पर रख देते हैं तथा सादगी और भलमनसाहत को खूंटी पर टांग देते हैं । चेहरे पर झुर्रिया और मुंह में दांत नहीं पर हमारे अपने घर-घराने कुटुंब कबीले कुल-खानदान के बूढे बुजुर्ग दादा परदादा काका चाचा भी अपने हम-उम्र हमजोली आस-पडोस, गाँव-देहात, टोला मुहल्ला की काकी, दादी, परदादी और अपने समकक्ष वृद्ध महिलाओं को देखकर फब्तियां कसें बिना नहीं रहते हैं। अपने पारिवारिक गवॅई रिश्तों-नातों की बुनियाद पर बोलीं-टिबोली बोलना पारम्परिक हक़ हूकूक समझते हैं। इस अल्हड़ ,अलबेले और मदमस्त मौसम का मिजाज उम्र-दराज बुढे-बुजुर्गों में बुढापे की सिहरन तथा थकन को अचानक आश्चर्यजनक तरीके से मिटा देता है। इस बसंती बयार और फागुनी बहार में हर नर-नारी के अन्दर हम-उम्र और हम जोलियो संग छिछोरापन करने का अद्भुत जोश और जुनून आ जाता हैं। ऋतुओं और मौसमों को ध्यान में रखकर बनाये गये हर तीज त्यौहारों और उत्सवों को आम हिन्दुस्तानी पूरे उत्साह और उल्लास के साथ मनाते हैं।
इधर कुछ वर्षों से आम जनमानस में यह धारणा तेजी से प्रचलित होती जा रही है कि-फगुआ का त्यौहार पूरी तरह से मौज-मस्ती और आनंद का त्यौहार है। बढ़ती उच्छृंखलता के दौर में लोगो मन मस्तिष्क में यह धारणा घर करती जा रही है इसमें किसी के साथ किसी तरह का व्यवहार और बर्ताव करने की पूरी आजादी है। जनमानस में व्याप्त इस धारणा के कारण फगुआ का असली उद्देश्य और असली संदेश हमारे लोकमानास के मन मस्तिष्क और मानसिक चिंतन और विचार- विमर्श से कोसों दूर हो गया है। फगुआ नाचने गानें झूमने मौज मस्ती और आनंद लेने के साथ-साथ हिरण्यकश्यप , होलिका जैसे दुराचारियों दम्भियों और अंहकारियो की दूषित, प्रदूषित और कलुषित व्यक्तित्वो के विनाश से सबक सीखने का भी त्यौहार है। भारतीय परम्परा में होली , होलिका और हिरण्यकश्यप जैसे अनगिनत दुष्कर्मियो के अन्दर विविद्यमान दुष्प्रवृत्तियों के नाश की कामना तथा भारतीय लोकवृत में महिमामंडित भक्त प्रह्लाद जैसे भक्ति भावना रखने वाले दृढ निश्चयी, सत्यवादी और सच्चरित्र व्यक्तित्वो को स्मरण करते हुए और उनसे अनुप्रेरित और अनुप्राणित होने का पवित्र पावन त्यौहार हैं। होलिका दहन के साथ-साथ हमे अपने मन मस्तिष्क मिज़ाज और हृदय में घर बना चुके ईर्ष्या, द्वेष ,घृणा ,अहंकार और क्रूरता जैसे मनोविकारों को जलाकर भस्म कर देना चाहिए और हमारे आचरणो व्यवहारों और आदतों में समाहित दुर्व्यसनो और दुर्रव्यवहारो को जड-मूल से समाप्त कर देना चाहिए और यही होलिका दहन का मौलिक और वास्तविक निहितार्थ और निष्कर्ष हैं।आग में न जलने का वरदान प्राप्त होलिका हिरण्यकश्यप द्वारा प्रह्लाद को जलाने के लिए सजायी गयी अग्नि चीता में जलकर खाक हो गई और भक्त प्रह्लाद सकुशल बच गया। वस्तुतः सच्चाई, सचरित्रता ,ईमानदारी नैतिकता ,पवित्रता और निर्मलता कभी किसी आग से नहीं जलती है और झूठ, फरेब, छल ,कपट, मक्कारी , धूर्तता, और ढोंग ढकोसला की उम्र हर सभ्य और सुसंस्कृत समाज में बहुत कम होती हैं और इस तरह की मानसिकताऐ अंततः जलकर खाक हो ही जाती हैं।
होली की पूर्व संध्या पर होलिका दहन का चलन-कलन इसलिए प्रचलित हुआ कि-हर्ष उल्लास उमंग आशा और विश्वास जैसे विविध रंगों से परिपूर्ण रंगों का त्यौहार होली ईर्ष्या द्वेष घृणा अहंकार क्रूरता जैसे समस्त मनोविकारों को पूरी तरह मिटाकर विविध प्रकार के रिश्तों नातों में अंतर्निहित मधुरता का एहसास करने और हर किसी को एहसास कराने के साथ मनाया जाय। फगुआ का त्यौहार टूटे छूटे भूले भटके सभी रिश्तों नातों को याद करते हुए सबसे गले मिलने का त्यौहार है। इसलिए होली के एक दिन पूर्व होलिका दहन के अग्नि कुंड में हम अपने समस्त मनोविकारों दुर्गुणो दुर्व्यसनो को जला देते हैं तथा किसी भी प्रकार दुश्मनी को भुलाकर और किसी भी तरह की दुर्भावना मिटाकर हर्षित हृदय से होली मनाते हैं। किसी के जीवन में मस्ती और आनंद जरूरी है परन्तु सबके जीवन में मस्ती और आनंद तभी आयेगा जब हंसी ठिठोली और मौज मस्ती का तौर-तरीका अनुशासित मर्यादित और हमारी संस्कृति और सभ्यता के दायरे में हो। यह सर्वविदित है कि-हमारा देश पूरी दुनिया में उत्सवधर्मी देश के रूप में जाना जाता रहा है और लोग-बाग यहाँ हर उत्सव छक कर मनाते हैं परन्तु अश्लीलता और फूहडता हमारे तीज त्यौहारों और उत्सवों का हिस्सा कभी नहीं रहें । हमारे बिहारी माटी में मस्ती के साथ- साथ लोग-लुगाई अपने अपने मीठे रिश्तो नातों को याद करते हैं। बिहारी माटी के गाँवो और अर्द्ध ग्रामींण और अर्द्ध शहरी संस्कृति वाले कस्बों में ढोल झाल करताल मृदंग मंजीरा के साथ लगभग एक महीना मस्ती के फाग और चौताल गाते हैं।
हमारे गाँवो में फगुआ और फाग गाने का चलन-कलन बहुत पुराना है। फाग और चौताल सहकार समन्वय साहचर्य सहिष्णुता के साथ-साथ स्वस्थ्य मनोरंजन का साधन रहा है। हमारी देशज लोक संगीत लोक नृत्य और लोक साहित्य की मिठास भरी परम्परा में फगुआ,फाग और चौताल को मस्ती के साथ मिलन-जुलन का लोक संगीत और लोक नृत्य माना जाता रहा है । आज सिल्वर स्क्रीन द्वारा लगातार परोसें जाने वाले पाॅप और राॅक संगीत तथा गाँवो कस्बों में तेजी से बढती आर्केस्ट्राई और डीजे संस्कृति के कारण मस्ती और मिलन की लोक संस्कृति को जीवंत रखने वाले फगुआ फाग और चौताल के ऊपर गहरा संकट मंडराने लगा है। अपनी माटी की महक को सहेजे समेटे फगुआ फाग और चौताल को जीवंत रखने की आवश्यकता है। क्योंकि लोक संगीत और लोक साहित्य के माध्यम से लोगों का दुःख ,दर्द ,हर्ष विषाद सहित सम्पूर्ण लोक जीवन अभिव्यक्त होता है।
कवि सुनील कुमार बताते हैं कि मध्ययुगीन भारतीय समाज में व्याप्त कुप्रथाए , कुरीतिया, विवेक, विकास और इंसानियत रूढ़ियों और समस्त अंधविश्वासों के रूप में लगे झाड-झंखाडो पर सबसे करारा प्रहार कबीर ने किया। फक्कड़ कबीर ने कर्मकांडों तथा पाखंडो पर तार्किक, बौद्धिक और दूरदर्शितापूर्ण हमला किया। होली के दिन लोगों की टोली साज बाज के इस मध्ययुगीन क्रांतिकारी फक्कड़ कवि कबीर का नाम लेकर कबीरा और जोगीरा गाते रहते हैं। वस्तुतः अनपढ़ कबीर अपने दौर के सामाजिक संचेतना के सबसे प्रखर और उत्कट दार्शनिक थे। जिन्होंने ने दकियानूसी ख्यालो और धूर्तता पर आधारित कर्म-काण्डो पर निर्भिकता से प्रहार करते हुए मानवता मानव समाज और मानवीय जीवन की सच्चाइयों और वास्तविकताओ से लोगों को रूबरू कराया। कबीरा गाते हुए लोग शायद अन्दर और बाहर की हकीकतों से लोगों को रूबरू कराने का प्रयास करते रहते हैं और लोक जीवन को आनन्दित और आन्दोलित करते रहते हैं। यह एक सर्वविदित सच्चाई है जो समाज अपने समाज के नैतिक मूल्यों, आदर्शों, मान्यताओं और सच्चाईयो को लेकर सर्वदा सजग सचेत और आन्दोलित रहेगा वही समाज वास्तव में आनंदित रहेगा। फक्कड़ कबीर का जीवन सीसे की तरह आर-पार दिखने वाला जीवन था। आज तथाकथित बाजारवादी सभ्यता और संस्कृति के दौर में लोग ढोंग, ढकोसला का जीवन जी रहे हैं। ढोंग ढकोसला पर आधारित नकली और बहुरुपिया जीवन जीने वाले लोग तनाव और बिमारियों की चपेट में आते जा रहे हैं। स्वस्थ और प्रसन्नचित्त जीवन के लिए ज़रूरत है सा़फ सुथरा वास्तविक और फक्कड़ कबीर की तरह पारदर्शी जीवन जीने की ।
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