पुलिस वालों का हाथ बांधना क्या अपराध को बढ़ावा देना नहीं माना जाना चाहिए

 संवाददाता श्याम सुन्दर पांडेय की रिपोर्ट 

दुर्गावती(कैमूर)--बिहार में बढ़ते अपराध के लिए किसको जिम्मेदार माना जाए राजनेता या पुलिस महकमा क्योंकि दोनों एक ही पहलू के दो सिक्के है यह एक महत्वपूर्ण सवाल है जो बिहार के बुद्धिजीवी जनता के मानस पटल पर घूमती है। आज के परिवेश में कही अपराधी हत्या कर देते हैं तो बलात्कारी बलात्कार, लगता है उन्हें पुलिस और कानून का कोई भय है ही नहीं। जब भी कोई पुलिस पदाधिकारी अपराधी के गिरवान तक पहुंचता है तो उसे सरकार में बैठे राजनेताओं का भय बना रहता है की, कही अपराधी राजनेताओं से संबंधित तो नहीं है ,और यदि  संबंध रहता है तो हाथ रुक जाते है। भारतीय राजनीति में अपराधियो और बलात्कारियो का प्रवेश पहले से ही होता रहा है जिसकी परंपरा कुछ दिनों तक बहुत जोरों पर थी और आज भी संगीन आरोप लगाए जाने के बाद भी मामला न्यायालय में लंबित होने के कारण राजनीति में उनकी एंट्री हो जाती है जो अपराध को बढ़ाने में संगीन भूमिका मानी जानी चाहिए। वैसे राज नेताओं को पता है कौन लोग अपराधी हैं लेकिन सब कुछ जानने के बाद भी कुछ नहीं कर पाते। मानवधिकार की बात करने वाले लोग पुलिस को भी अपराधियों से भी मानवता की बात करने उनके साथ पेश होने को कहते हैं, क्या अपराधी मानववादी होता तो अपराध करता। यदि अपराधी पर पुलिस हल्का बल प्रयोग करती है तो खुदानका कहीं से उसके वीडियो बना लिए जाते हैं और उसे सस्पेंड कर दिया जाता है जिससे उसका मनोबल गिर जाता है और दूसरे अपराधी किस्म के लोगों पर कुछ करने में वह सहम जाती है। पुलिस को अपने एरिया की हर जानकारी होती है लेकिन उसे तलाश रहती है ठोस साबुत की यदि ऐसा नहीं होता तो छोटे-मोटे अपराधियों को थाने पर बुलाकर डांट डपट करके उन्हें अपराध बढ़ाने और अपराधी बनने से पुलिस रोक सकती है। लेकिन हाथ बंधे होने के कारण पुलिस के भय से मुक्त छोटे-मोटे अपराधी बड़े अपराधी बन जाते हैं। लंबे संघर्ष और बड़ी मशक्कत के बाद पुलिस अपराधियों को पकड़ती है और न्यायालय को सुपुर्द कर देती है लेकिन न्यायालय में लंबे समय गुजर जाने के बाद दंड नहीं मिलने के कारण फिर दूसरे अपराधियों का मनोबल बढ़ जाता है जो अपराध करने का एक कारण बनता है। कहीं कहीं तो राज नेताओं के हस्तक्षेप के कारण पुलिस सही निर्णय तक नहीं जा पाती और जाने के बाद भी वापस आ जाती है। यदि सचमुच पुलिस को स्वतंत्र रूप से छोड़ दिया जाए तो अपराध मुक्त बिहार ही नहीं कोई राज्य को होने में समय नहीं लगेगा। पुलिस भी मानव ही होता है और उसे मानवता अच्छी तरह से याद है वह कभी भी दुर्व्यवहार पूर्ण कार्य किसी साथ नहीं करती। पुलिस की निगरानी होनी चाहिए इससे इनकार नहीं किया जा सकता लेकिन पार दर्शिता और अस्पष्टता  भी उसके साथ दिखनी चाहिए और वह भी तत्काल जिससे की अपराधियों का मनोबल न बढ़ सके। यदि सचमुच ऐसे कदम उठाएं जाय तो अपराध होगा ही नहीं और होगा तो अपराधियों के सर को कुचलने में देर नहीं होगी।

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