स्वार्थ ही परमार्थ की प्रथम सीढ़ी

स्वार्थ - परमार्थ -स्वार्थ की बातें जब हमारे सामने आती हैं तो हम उसे बहुत घृणित तथा हीन भाव की दृश्टिकोण से देखते हैं। परन्तु परमार्थ की जब बातें हमारे सामने आती हैं तो हमें आत्मिक सन्तुस्टि तथा फक्र महसूस होता है। जबकि स्वार्थ, परमार्थ का  प्रथम सीढ़ी या सोपान है। 

स्वार्थ और परमार्थ दो शब्दों से बना है। स्वार्थ का तात्पर्य स्वयं का अर्थ समझाना। तो आपके मस्तिष्क में कुछ प्रश्न उत्पन्न होता है। १ -आप कौन है। २ -आप किससे निर्मित है। ३ -किस निमित्त परमात्मा ने आप को यहाँ भेजा है। ४ -आप का कर्तव्य क्या है। अब आप स्वयं पर विचार करें ,आप कौन हैं -आप स्वयं उसी परमात्मा का अंस है। आप किससे निर्मित है -आप पंचतत्वों से निर्मित है।  जैसे हम कह सकते है की 'क्षिति ,जल ,पावक ,गगन ,समीरा पञ्च रतन से  बना शरीरा '' अर्थात किसी भी व्यक्ति ,वस्तु ,प्राणी का निर्माण पांच तत्वों से ही होता है। जब आपका यह शरीर एक तत्व से नहीं अपित पांच तत्वों से मिलकर बना है तो घमंड और गर्व किस बात का। जरा सोचें अनाज का एक दाना जब हम जमीं के अंदर डालते है तो अपने को खाक में मिलाकर सैकड़ों दाने की उत्पत्ती करता है।                                       

 परन्तु वह दाना अपने लिए कुछ भी नहीं रखता है। अपना जड़ चीटीं -मकरे को प्रदान करता है, तना पत्तियां चौपाये जंतु खा जाते है। और उसका मूल भाग जो बीज है उसे हम मनुस्य खा जातें है। और हमारे अंदर ऊर्जा उत्पन्न होता है। हमें शक्ति प्रदान होती है फिर भी हम भूल जाते है की शक्ति ,ऊर्जा उस बीज का है जो अपना सर्वस्व दूसरों के लिए प्रदान कर दिया। तो हम उस शक्ति से ,ऊर्जा से लोकहित करें और आध्यात्मिक स्वार्थी बनें। जैसा कहा गया है कि ' सुर ,नर, मुनि सबहीं  की रीती स्वारथ लाय करें सब प्रीति ' | जब देवता स्वार्थी होता है। तो भक्तों का हित  करता है। जब मनुस्य स्वार्थी होता है। -तो अपने परिवार के लिये सब कुछ करता है और जब मुनि स्वार्थी होता है ,तो पूरा विश्व का हित करता है। जब हम स्वार्थ का अर्थ समझ लेते है। तो परमार्थ अपने आप होने लगता है

तथा हीन भाव की दृश्टिकोण से देखते हैं। परन्तु परमार्थ की जब बातें हमारे सामने आती हैं तो हमें आत्मिक सन्तुस्टि तथा फक्र महसूस होता है। जबकि स्वार्थ, परमार्थ का  प्रथम सीढ़ी या सोपान है। 

स्वार्थ और परमार्थ दो शब्दों से बना है। स्वार्थ का तात्पर्य स्वयं का अर्थ समझाना। तो आपके मस्तिष्क में कुछ प्रश्न उत्पन्न होता है। १ -आप कौन है। २ -आप किससे निर्मित है। ३ -किस निमित्त परमात्मा ने आप को यहाँ भेजा है। ४ -आप का कर्तव्य क्या है। अब आप स्वयं पर विचार करें ,आप कौन हैं -आप स्वयं उसी परमात्मा का अंस है। आप किससे निर्मित है -आप पंचतत्वों से निर्मित है।  जैसे हम कह सकते है की 'क्षिति ,जल ,पावक ,गगन ,समीरा पञ्च रतन से  बना शरीरा '' अर्थात किसी भी व्यक्ति ,वस्तु ,प्राणी का निर्माण पांच तत्वों से ही होता है। जब आपका यह शरीर एक तत्व से नहीं अपित पांच तत्वों से मिलकर बना है तो घमंड और गर्व किस बात का। जरा सोचें अनाज का एक दाना जब हम जमीं के अंदर डालते है तो अपने को खाक में मिलाकर सैकड़ों दाने की उत्पत्ती करता है।                                       

 परन्तु वह दाना अपने लिए कुछ भी नहीं रखता है। अपना जड़ चीटीं -मकरे को प्रदान करता है, तना पत्तियां चौपाये जंतु खा जाते है। और उसका मूल भाग जो बीज है उसे हम मनुस्य खा जातें है। और हमारे अंदर ऊर्जा उत्पन्न होता है। हमें शक्ति प्रदान होती है फिर भी हम भूल जाते है की शक्ति ,ऊर्जा उस बीज का है जो अपना सर्वस्व दूसरों के लिए प्रदान कर दिया। तो हम उस शक्ति से ,ऊर्जा से लोकहित करें और आध्यात्मिक स्वार्थी बनें। जैसा कहा गया है कि ' सुर ,नर, मुनि सबहीं  की रीती स्वारथ लाय करें सब प्रीति ' | जब देवता स्वार्थी होता है। तो भक्तों का हित  करता है। जब मनुस्य स्वार्थी होता है। -तो अपने परिवार के लिये सब कुछ करता है और जब मुनि स्वार्थी होता है ,तो पूरा विश्व का हित करता है। जब हम स्वार्थ का अर्थ समझ लेते है। तो परमार्थ अपने आप होने लगता है

 

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